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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
खुद हमेशा तत्त्व के रूप में रहता है और फेज़िज़ उत्पन्न होते हैं, और बाद में उनका विनाश हो जाता है। जैसे कि चंद्रमा के फेज़िज़ में तीज होती है, चौथ होती है, पंचमी होती है लेकिन चंद्रमा तो अपने मूल स्वरूप में ही है। ये तो उसके फेज़िज़ हैं, संयोगों के आधार पर। 'आप' खुद ऐसा मानते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ', अत: फेज़ रूपी बन गए हो।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य खुद मिश्रचेतन का भाग है इसलिए फेज़ रूपी (अवस्था रूपी) है?
दादाश्री : नहीं! यदि वह मिश्रचेतन का भाग होता न, तो मूल स्वरूप में होता। मनुष्य तो फेज़ रूपी है क्योंकि 'उसकी' मान्यता रोंग है कि 'मैं चंदूभाई हूँ', उसका वर्तन रोंग है और उसका ज्ञान रोंग है। जिसकी मान्यता, वर्तन और ज्ञान फैक्ट हों, वह फेज़ रूपी नहीं कहलाएगा, वह मूल स्वरूप कहलाएगा।
__जैसे कि ये फेज़िज़ ऑफ मून हैं, उसी प्रकार से ये जो आत्मा के फेज़िज़ हैं, वे ही पर्याय हैं। वे फेज़िज़ खत्म हो जाएँगे तो पूनम हो जाएगी।
तत्त्व से शून्य, पर्याय से पूर्ण प्रश्नकर्ता : 'आत्मा पर्याय से पूर्ण है और स्वभाव से शून्य है', वह किस प्रकार से? यह ज़रा समझना है।
दादाश्री : ये जो पौद्गलिक पर्याय हैं न, उनके आधार पर पूर्ण है और स्वभाव से संकल्प-विकल्प रहित है, स्वभाव से शून्य है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन इसमें पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) की बात किस तरह आती है? आत्मा के जो पर्याय हैं, वे ज्ञाता-दृष्टा बनकर पुद्गल को देखते हैं इसलिए?
दादाश्री : पर्याय, यहाँ पुद्गल पर लागू होते हैं। क्योंकि स्वभाव बाद में आता है। स्वभाव में सबकुछ शून्य है, इसीलिए वहाँ पर पर्यायवर्याय सब शून्य हो जाते हैं।