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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
ज्ञान ही आत्मा है, द्रव्य-गुण के रूप में प्रश्नकर्ता : आप्तवाणी चौथी में ऐसा लिखा है कि ज्ञान ही आत्मा है। वह किस प्रकार से? आत्मा तो द्रव्य है और ज्ञान उसका गुण है।
दादाश्री : ज्ञान ही आत्मा है लेकिन वास्तव में कौन सा ज्ञान? केवलज्ञान। केवल अर्थात् उसमें अन्य कोई भी मिक्स्चर नहीं है। सिर्फ केवलज्ञान ही, शुद्ध प्रकाश ही है। शुद्ध प्रकाश। अभी अशुद्ध प्रकाश दिखाई देता है। शुभ, अशुभ प्रकाश दिखाई देता है। शुभाशुभ प्रकाश की वजह से यह सारी मार खानी पड़ती है। वह शुद्ध प्रकाश अर्थात् हीरा, खुद अपने ही स्वभाव से दमकता है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान और आत्मा का तादात्म्य संबंध बताया?
दादाश्री : हं, ज्ञान ही आत्मा है और ज्ञान उसका गुण है। और जब ज्ञान का उपयोग होता है तो वह उसका पर्याय कहलाता है। यह ज्ञान ही आत्मा है। जब ज्ञान केवल हो जाता है, तब द्रव्य रूपी कहलाता है और जब तक केवल नहीं हो जाता तब तक वह ज्ञान, गुण रूपी कहलाता है। मूल आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है लेकिन यदि शुद्ध ज्ञान हो तो वह द्रव्य कहलाता है और वही ज्ञान है। अतः ज्ञान स्वरूप पर पहुँचने की बात करनी है, ज्ञान की ही बात करनी है, अन्य कोई बात नहीं। द्रव्य अन्य कोई चीज़ नहीं है। द्रव्य का अर्थ है कुछ खास गुणों से भरी हुई वस्तु । ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सुख वगैरह ये सब जो गुण हैं, उनसे भरी हुई वस्तु, और उसमें भी खास तौर पर उसका स्वभाव कैसा है? वह ज्ञायक स्वभाव है। अर्थात् जानने का स्वाभाव है। तुरंत ही जान जाता है, समझ जाता है। वह अविनाभाव संबंध है।
प्रश्नकर्ता : अविनाभाव संबंध, ज्ञान और आत्मद्रव्य का?
दादाश्री : हाँ, द्रव्य और ज्ञान का अविनाभाव संबंध है और एक परिप्रेक्ष्य से ज्ञान ही द्रव्य कहलाता है। जब तक ज्ञान अधूरा है तब तक ज्ञान को अलग रखा है। जब तक आत्मज्ञान है तब तक द्रव्य और ज्ञान अलग हैं और जहाँ संपूर्ण केवलज्ञान है, वहाँ पर द्रव्य और ज्ञान, दोनों एक हो जाते हैं।