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(२.१) परिभाषा, द्रव्य-गुण-पर्याय की
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दादाश्री : घंटे और पल में जितना फर्क है, उतना अधिक फर्क है इनमें । दोनों में फर्क तो है। क्या हम घंटों को अंतिम दशा कहते हैं? नहीं! हम यहाँ व्यवहार में पल को अंतिम दशा मानते हैं। ये जो पर्याय हैं, वे उसके जैसी सूक्ष्म चीज़ है। फिर भी उसमें पल जैसी स्थूलता नहीं होती, वहाँ पर स्थूल नहीं है। __अवस्था आँखों से देखी जा सकती है, अनुभव की जा सकती है, सब स्थूल होता है जबकि पर्याय तो बहुत सूक्ष्म होते हैं। यह जो रात है न, तो रात के पर्याय हर एक समय में बदलते ही रहते हैं। लेकिन हमें वह वैसे का वैसा ही दिखाई देता है। रात को पर्याय तो बदलते ही रहेंगे। सभी इंसानों के भी, दिन-रात सभी पर्याय बदलते ही रहते हैं लेकिन हमें तो वही के वही चंदूभाई दिखाई देते हैं। फिर जब वे बूढ़े होते हैं तब हम कहते हैं कि 'हाँ, अब बूढ़े हो गए हैं। तो भाई, हो ही रहे थे न! बूढ़े हो ही रहे थे न! (बुढ़ापे को अवस्था कहते हैं।) तो अवस्था और पर्याय में इतना अधिक फर्क है।
तो एक गाँव में ऐसा हुआ कि दो भाई थे, तो ऊपर छोटा भाई रहता था और नीचे बड़ा भाई रहता था। उन्होंने जगह बाँट ली थी, नीचे भैंस बाँधते थे। यह मेरी और यह तेरी जगह है, भैंस बाँधने की। अब जो भैंस का बच्चा था, उसे कहाँ बाँधे ? रात को ठंड से मर जाता। और नीचे जो बड़ा भाई था, वह अपने यहाँ बाँधने नहीं दे रहा था। तो जो छोटी बहू थी, वह रोज़ ही उसे उठाकर ऊपर ले जाती। उसे तो उस भैंस के बच्चे का पर्याय वही का वही दिखाई देता था। जबकि वह बच्चा तो बड़ा हो गया, फिर भी वह उसे ऊपर ले जाती थी और वह धीरे-धीरे बढ़ रहा था, ग्रैजुअली, उसे कुछ पता नहीं चला। उसे तो वह वैसे का वैसा ही दिखाई देता था। लेकिन उसकी अवस्था तो निरंतर बदल ही रही थी।
अतः पर्याय और अवस्था! तब फिर लोगों ने कहा, 'अरे भाई, तू इस बच्चे को किस तरह ले जाता है?' तब फिर वे सोच में पड़ गए
और उसके बाद वह छूट गया। उस बच्चे को बेच दिया। तो ऐसा है यह सब।