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(२.१) परिभाषा, द्रव्य-गुण-पर्याय की
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शुद्ध चित्त पर्याय के रूप में, शुद्धात्मा द्रव्य-गुणों के
रूप में प्रश्नकर्ता : आत्मा इस देह में है और पर्याय सहित है, तो अशुद्ध चित्त, प्रज्ञा और आत्मा के पर्यायों के बीच क्या संबंध हैं?
दादाश्री : उस (मूल) आत्मा के पर्याय शुद्ध हैं। गुण भी शुद्ध हैं और पर्याय भी शुद्ध हैं।
प्रश्नकर्ता : तो अभी यह सारा फंक्शन चित्त का है? प्रज्ञा का फंक्शन है?
दादाश्री : हाँ! वह तो ऐसा है कि जब सभी गुण और पर्याय शुद्ध हो जाते हैं तब 'खुद को' केवलज्ञान हो जाता है। तब तक प्रज्ञा अलग रहती है।
प्रश्नकर्ता : हं। तो उस क्षण आत्मा के पर्याय रहते हैं न?
दादाश्री : हाँ, लेकिन (विभाव दशा के बाद वाले) पर्याय शुद्ध हो जाएँ और गुण भी शुद्ध हो जाएँ तो उसके बाद उसे' केवलज्ञान होता है। अर्थात् जब तक वह होना बाकी है तब तक यह सब अलग रहता है।
प्रश्नकर्ता : ठीक है। गुण तो शुद्ध ही होते हैं न? क्या गुण का शुद्ध होना भी बाकी रहता है?
दादाश्री : गुण के भी शुद्ध होने की ज़रूरत है। प्रश्नकर्ता : वह किस प्रकार से?
दादाश्री : जब ये सभी डिस्चार्ज कर्म शुद्ध उपयोगपूर्वक खप जाते हैं तब उसका गुण शुद्धता रूपी फल देता है, वर्ना नहीं देता। तभी केवलज्ञान होता है, वर्ना नहीं हो सकता। अभी गुण आवरण वाले हैं।
सभी का (व्यवहार) आत्मा, द्रव्य और गुणों से शुद्ध ही है लेकिन पर्याय से अशुद्ध है। इसमें पर्याय का शुद्धिकरण हो जाएगा तो हो जाएगा पूर्ण शुद्धात्मा।