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आप्तवाणी - १४ (भाग - १)
होता जाता है और वैसे-वैसे उसका वर्चस्व बढ़ता जाता है ! उससे सातत्य भाव उत्पन्न होता है लेकिन फिर अंदर परेशान हो जाता है ।
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वे व्यतिरेक गुण नाशवंत हैं लेकिन पूरा जगत् उन गुणों के अधीन है। भ्रांति से इतना फँसाव हो गया है कि जीव उस भ्रांति के अधीन ही बरतते रहते हैं। उसी को चेतन मानते हैं । 'मुझे ही क्रोध हो रहा है, और किसे हो रहा है? मैं ही लोभ कर रहा हूँ' । जेब में से पच्चीस रुपए खो जाएँ तब भी लोभी को पूरे दिन याद आते रहते हैं, वे हैं लोभ के गुण । अगले दिन भी याद करता है । यदि वह लोभी नहीं है तो उसे कुछ भी नहीं है।
स्वभाव में रहकर होता है विभाव
प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा कहा है कि सिर्फ चेतन तत्त्व में ही स्वभाव में रहने की शक्ति है और विभाव में रहने की भी शक्ति है। दादाश्री : हाँ ! तो फिर ?
प्रश्नकर्ता : यदि यह चेतन तत्त्व विभाव करता है तो वह स्वभाव में नहीं आ सकेगा न ?
दादाश्री : नहीं, स्वभाव में ही रहता है । चेतन खुद के स्वभाव से बाहर जाता ही नहीं है और कुछ संयोगों की वजह से विशेष भाव उत्पन्न होता है। वे संयोग चले जाएँगे तो बंद हो जाएगा।
प्रश्नकर्ता : क्या शुद्ध चेतन को विशेष भाव नहीं हो सकता ?
दादाश्री : वह तो स्वभाव में ही रहता है। यह विशेष भाव तो बाहर से उत्पन्न हो गया है। उन संयोगों के मिलने से यह विशेष भाव उत्पन्न हुआ था और जब हम उसे ज्ञान देते हैं तो वह अलग हो जाता है इसलिए विशेष भाव खत्म हो जाता है। यानी यह जो 'मैं चंदूभाई हूँ', वह विशेष भाव था, वह ' मैं शुद्धात्मा हूँ' होते ही खत्म हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: उसके बाद क्या वह वापस इच्छा नहीं करता ? विशेष भाव नहीं करता?