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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
दादाश्री : जो मान बैठा है, वह कौन है ? प्रश्नकर्ता : खुद।
दादाश्री : वह खुद, वही पोतापन है। यह जो अहंकार है, वह 'मैं' है, वह पोतापन नहीं है। वह खुद ही पोतापन है। 'मैं' तो, यदि पुलिस मुझसे कहे कि, 'यह गाड़ी ऐसे क्यों घुमवाई? क्या नाम है?' तो कहूँगा, ‘लिखो, मैं हूँ ए.एम.पटेल'। 'भाई, कहाँ के वासी हो?' तो कहूँगा, 'मैं भादरण का'। 'किस जाति के हो?' 'पटेल हूँ।' क्या कहूँगा? मेरा 'मैं' तो एडजस्टेबल हो गया न! 'मैं' आज दादा भगवान भी कह सकता हूँ, किसी ऐसी जगह पर, जहाँ पर कहा जा सके वहाँ पर। वर्ना ए.एम. पटेल भी कह सकता हूँ। नहीं तो कॉन्ट्रैक्टर भी कह सकता हूँ और हीरा बा के गाँव में जाऊँ तो तब लोग यदि 'फूफा' कहें तब 'मैं फूफा हूँ, हाँ ठीक है'। नहीं? कोई फूफा कहेगा, कोई जीजा कहेगा, कोई मामा कहेगा, कोई चाचा कहेगा, एवरीव्हेर एडजस्टेबल। यह 'मैं' कितना अच्छा है!
और यदि 'खुद' ऐसा होता कि एडजस्टेबल हो जाता तब तो बहुत अच्छा कहलाएगा न! जबकि दूसरी सभी जगह पर पोतापन करता है।
'मैं' को नहीं समझने के कारण, 'मैं' में से अन्य वस्तुओं पर आरोपण किया इसलिए विकल्प हो गया। अतः विकल्प का जो पूरा गोला है, वही पोतापन कहलाता है। विकल्प का पूरा गोला इकट्ठा हो गया। इधर से विकल्प और उधर से विकल्प, वह है पोतापन। उसमें जितने विकल्पों को कम करेगा उतने ही कम होंगे और जितने बढ़ाएगा उतने बढ़ेंगे। लेकिन वह गोला रहेगा तो सही।
वह गोला बहुत जटिल है। पोतापन का वह जो गोला होता है न! आपके साथ धर्मस्थानकों में भक्ति में जो बैठते हैं न, उनके गोले तो इतने बड़े-बड़े होते हैं। टीका-टिप्पणी नहीं करनी है लेकिन यदि गोले देखने जाएँ तो वे बड़े-बड़े हैं। मुझे यही समझ में नहीं आता कि वह उन गोलों को कब निकाल पाएगा।
प्रश्नकर्ता : दादा, 'मैं' की वजह से पोतापन मानता है न? आपने कहा न 'मैं', यह 'मैं' ही पोतापन मनवाता है ?