________________
१७२
आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
है। जब यह अहंकार, बुद्धि सहित, आत्मा को जानता है तब उसका खुद का अस्तित्व खत्म हो जाता है। अतः यह वाक्य बाहर ले जाने के लिए नहीं है। देखना ये बातें, आत्मिक वाक्य बाहर ले जाएँगे न, तो बाहर घोटाला हो जाएगा। आपका कहना सही है कि ऐसा कहने पर कि 'अहंकार आत्मा को जानता है' तो लोग समझेंगे कि 'ये लोग उल्टे चल रहे हैं। बाकी, अहंकार आत्मा को कभी भी नहीं जान सकता। जब ज्ञानी पुरुष ज्ञान देते हैं सिर्फ तभी अहंकार खुद समझ जाता है कि 'यह मेरा स्वरूप नहीं है। जो है वह 'यही' है, मैं तो बिना बात के ही बीच में हूँ', वह खुद के अस्तित्व को ही डिज़ोल्व कर देता है।
प्रश्नकर्ता : फिर वह आत्मा अहंकार को देखता है न?
दादाश्री : आत्मा तो अहंकार को पहले से देख ही रहा था। इन सांसारिक व्यक्तियों में भी आत्मा तो देख ही रहा है कि 'मेरा अहंकार बढ़ गया, कम हो गया'। नहीं जानता क्या? यह जानने वाला कौन है ? 'मेरी बुद्धि बढ़ गई है, मेरी बुद्धि उल्टी चल रही है, गलत चल रही है', यह सब जानने वाला कौन है?
प्रश्नकर्ता : 'अहंकार आत्मा को जानता है', वह ज़रा ठीक से समझ में नहीं आया।
दादाश्री : वह जानता ही नहीं है। यह बात तो अपनी भाषा में है, वास्तविकता में। बाहर की भाषा में नहीं है यह। जब हम ज्ञान देते हैं तभी यह अहंकार छूट जाता है, तब तक वह अहंकार जाता नहीं है। जब हम ज्ञान देते हैं, तब ज्ञान से 'वह' स्तब्ध हो जाता है कि इसमें मेरा स्कोप कहाँ पर है? मेरा मालिकीपन कहाँ है और मेरा स्कोप कहाँ है? उस समय इसमें लाइन ऑफ डिमार्केशन में समझ जाता है कि यही शुद्धात्मा है इसलिए वह खुद वहाँ पर 'मैं 'पन छोड़ देता है। अहंकार खुद छोड़ देता है। आत्मा को जान जाता है कि आत्मा ही है, यही मालिक है इसलिए तुरंत कूँची (चाबी) सौंप देता है। जैसे कि जब वास्तविक प्रेसिडेन्ट आ जाता है तो इस जैलसिंह को (अंतरिम प्रेसिडेन्ट को) छोड़ देना पड़ता है या नहीं छोड़ना पड़ता या जैलसिंह फिर शोर मचाता है?