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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
और विकार तो, जब वैसे संयोग मिलते हैं तब 'वह' विकारी बन जाता है, यों सही संयोग मिलते हैं तब 'वह' निर्विकारी बन जाता है। यानी 'उसे' विकारी या अविकारी जैसा कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : यानी कि वह खुद ही विकारी बनता है अथवा निर्विकारी भी वही बनता है ?
दादाश्री : वह खुद कहता भी है, कि 'मेरा स्वभाव विकारी है' और निर्विकारी भी हो सकता है, अगर संयोग मिल जाएँ तो।
अहंकार नहीं है तो कुछ भी नहीं होगा। ये विकार ही नहीं होंगे और वह फिर से निर्विकारी भी नहीं बन सकेगा। अहंकार है तो होता
प्रश्नकर्ता : मूल आत्मा तो निर्विकारी ही है ?
दादाश्री : वहाँ पर तो विकार है ही नहीं। 'अनासक्त' है। 'अकामी', 'अनासक्त', निर्विकारी ही है वह तो! 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वहाँ पर शुद्ध बन गया और 'मैं हूँ विकारी' तो विकारी बन गया। 'मैं निर्विकारी हूँ' तो निर्विकारी ! 'मैं ब्रह्मचारी' तो वह ब्रह्मचारी बन गया।
प्रश्नकर्ता : जैसा चिंतन करे वैसा ही बन जाता है। दादाश्री : हाँ, जैसा चिंतन करे वैसा ही बन जाता है!
तब अहंकार गद्दी सौंप देता है 'मूल' को प्रश्नकर्ता : 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा कौन जानता है ?
दादाश्री : वह तो अहंकार जानता है। अहंकार अर्थात् 'मैं' जानता है। 'मैं चंदूभाई हूँ', वह चंदूभाई ('मैं' चंदूभाई की सीट पर बैठा है, वह अहंकार) का ज्ञान बदला और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' हो गया। और वह अहंकार तो बुद्धि सहित ही होता है। बाकी यों तो अहंकार को ज़रा सा भी ज्ञान नहीं है। सिर्फ बुद्धि अकेली आत्मा को नहीं जान सकती। बुद्धि जब अहंकार सहित हो तभी जान सकती है।