________________
१६८
आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
प्रश्नकर्ता : अर्थात् हर एक क्रिया में वह खुद सिर्फ मानता ही है। यानी देखने वाला अलग है और खुद मानता है कि 'मैं देख रहा हूँ'।
दादाश्री : वह 'देखने वाला' (दृष्टा) तो है ही नहीं। प्रश्नकर्ता : वह खुद नहीं है? दादाश्री : वह तो बिल्कुल अंधा ही है।
प्रश्नकर्ता : अभी आपने कहा न कि वह 'मैं' ही है, वह 'मैं' ही देखता है, 'मैं' सुनता है।
दादाश्री : नहीं! वह तो अंदर प्रकृति ऐसा जानती है कि प्रकृति में आत्मा की जानने की शक्ति आई है, पावर आया है। किसी भी चीज़ में पावर भरने से खुद के पावर में कमी नहीं आती लेकिन वह चीज़ पावर वाली होती जाती है।
प्रश्नकर्ता : तो क्या आत्मा का पावर प्रकृति में उतरा है ? उसके आधार पर वह यह सारा ज्ञान समझ सकता है? उसके आधार पर यह सब जानना-सुनना हुआ?
दादाश्री : बुद्धि उसी के आधार पर यह सब जानती है। फिर अहंकार कहता है, 'मैं जानता हूँ' और 'कर भी मैं ही रहा हूँ। दोनों में से एक बोल न, तब कुछ राह पर आएगा।
प्रश्नकर्ता : तो वह ज़रा समझ में नहीं आया। आत्मा का पावर प्रकृति में उतरा?
दादाश्री : 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा बोलता है न, तो उस क्षण 'मैं' वास्तव में इगोइज़म नहीं है। वह तो है आत्मा का विशेष परिणाम। 'खुद' आत्मा ही है लेकिन अब 'वह' जो है, वह ऐसा मानता है कि 'यह मैं हूँ'। बीच में उत्पन्न हो चुकी एक चीज़ है, आत्मा से बाहर। उसे विशेष भाव कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : यह 'मैं', क्या वह पूरा ही विशेष भाव है ?