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(१.१२) 'मैं' के सामने जागृति
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प्रश्नकर्ता : उसके शरीर में।
दादाश्री : नहीं, पूरी बस में। जब वह ड्राइविंग करता है तब ज़रा सा भी नहीं टकराता, उस तरफ। उसका 'मैं' पूरे बस रूपी ही हो जाता है। जहाँ पर टकराने लगे वहाँ 'मैं' उसे बिल्कुल भी टकराने नहीं देता। बड़ी सौ फुट की बस हो तब भी उसे वह टकराने नहीं देता। उसे कैसे पता चलता है कि इस कॉर्नर पर टकराएगा या नहीं? लेकिन 'मैं'पन है इसलिए। 'मैं 'पन का इतना अधिक विस्तार करता है कि यदि बस में बैठा हो तो बस में, कार में बैठा हो तो कार में। विस्तारपूर्वक अर्थात् कहीं पर भी बिल्कुल नहीं टकराता। वर्ना तो वास्तव में इसी में है। इस देह में ही जहाँ पर सुई चुभोए वहाँ पर उसे पता चलता है या नहीं चलता? क्या कहने जाना पड़ता है ? बूढ़े को भी पता चल जाता है।
प्रश्नकर्ता : हर एक को पता चलता है। बात निकली थी न, 'मैं' सो गया है, 'मैं' देख रहा है, 'मैं' सुन रहा है तो यह 'मैं', क्या वह आत्मा है ? प्रकृति है ? वह क्या है ?
दादाश्री : वह तो अहंकार है। (मैं कर रहा हूँ अर्थात् अहंकार) प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन क्या वह आत्मविभाग में आता है ? दादाश्री : नहीं। प्रश्नकर्ता : तो प्रकृति में? दादाश्री : हं...
प्रश्नकर्ता : कर्तापन क्या उसका नहीं है? क्या वास्तव में वह कर्ता नहीं है?
दादाश्री : वास्तव में वह कर्ता नहीं है, वह तो मान बैठा है कि 'यह मैं कर रहा हूँ'। जैसे स्टेशन पर गाड़ी चलती है न, तब वह ऐसा समझता है कि, 'मैं चला'। ऐसा मान बैठता है। गाड़ी इस तरफ जाती है और उसे ऐसा दिखाई देता है कि वह खुद इस तरफ जा रहा है। तो क्या हम समझ नहीं जाएँगे कि इसे भ्रम हो रहा है। वह ऐसा मान रहा
है।