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(१.१२) 'मैं' के सामने जागृति
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दादाश्री : 'मैं' तो अलग चीज़ है। किसी भी जगह पर 'मैं' का आरोपण करना, 'मैं' का उपयोग उल्टी जगह पर किया तो उस क्षण पोतापन आ जाता है।
प्रश्नकर्ता : जब वह विकल्प होता है तब?
दादाश्री : हाँ, यदि दूसरी जगह पर (अज्ञान से) उपयोग किया तो विकल्प है लेकिन उससे 'मैं' को क्या लेना-देना? 'मैं' तो साफ का साफ ही है। यहाँ पर लाओ तो वापस यहाँ पर। उसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। उससे पोतापन हो जाता है, बस वही लेना-देना है। आपको पोतापन हुआ है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : दादा, ज़रा उदाहरण देकर समझाइए न! समझ में नहीं आया, 'मैं' और 'पोतापन', ये दोनों किस प्रकार से डिफरन्ट हैं ?
दादाश्री : मैंने जो कहा, वह उदाहरण देने जैसा ही हुआ न ! 'मैं' अर्थात् किसी भी चीज़ में आरोपण करना, किसी भी जगह पर 'मैं' का आरोपण कि 'मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, वह हूँ' जबकि 'आप' वह हो नहीं, इसके बावजूद भी 'आप' ऐसा कहते हो कि, 'मैं यह हूँ' अर्थात् आरोपण हुआ। तो उसमें से पोतापन उत्पन्न हो गया। अब वह 'मैं' ऐसा नहीं करता है लेकिन 'वह मैं हूँ' ऐसा आरोपण किया, इसलिए आरोपण करने वाले में पोतापन उत्पन्न हुआ।
प्रश्नकर्ता : वह आरोपण कौन करता है?
दादाश्री : वही, जो अंदर है। उसे अज्ञान कहा जाता है। अब अज्ञान 'मैं' से भी पहले की चीज़ है। 'मैं' का आरोपण करने वाली चीज़ ही अज्ञान है और यदि 'मैं' का आरोपण छोड़ देगा तो उसका यह सब चला जाएगा। जिसने 'मैं' का आरोपण छोड़ दिया, 'मैं' शुद्धात्मा हो गया, उसका 'अहंकार' चला गया।
प्रश्नकर्ता : दादा का ज्ञान लिया, इसलिए चला गया?
दादाश्री : (अहंकार का) 'उसका' आरोपण छूट जाए तो आसान बात है न! कहाँ मुश्किल बात है?