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(१.११) जब विशेष परिणाम का अंत आता है तब...
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विशेष परिणाम विनाशी हैं। यदि हम इस बात को समझ लें तो दोनों का 'मिक्स्चर' नहीं होगा। अर्थात् दोनों अपने खुद के परिणाम को भजेंगे। ___हम में' तो 'आत्मा' आत्मपरिणाम में रहता है और 'मन' मन के परिणाम में रहता है। मन में तन्मयाकार होने पर विशेष परिणाम आता है। 'आत्मा' स्वपरिणाम से परमात्मा है! दोनों अपने-अपने परिणाम में आ जाएँ और अपने-अपने परिणाम को भजें तो उसी को कहते हैं मोक्ष!
यदि 'खुद ने' यह जान लिया कि यह 'विशेष परिणाम' है तो वही 'स्वपरिणाम' है। 'विशेष परिणाम' में अच्छा-बुरा नहीं होता। अज्ञान' से मुक्ति अर्थात् ये 'खुद के परिणाम' और ये 'विपरिणाम', इस प्रकार से दोनों अलग हैं, ऐसा समझता है। जबकि 'मोक्ष' का अर्थ है 'विशेष परिणाम' का बंद हो जाना! 'स्वभाव-परिणाम' को ही 'मोक्ष' कहा जाता
___ 'दानेश्वरी' दान देता है या 'चोर' चोरी करता है, वे दोनों 'अपनेअपने' परिणाम को भजते (उस रूप होना, भक्ति) हैं, उसमें राग-द्वेष करने जैसा कहाँ रहा?
यदि वह खद विशेष भाव में परिणामित हो जाए तो जीव बन जाता है और यदि विशेष भाव का ज्ञाता-दृष्टा रहे तो परमानंद देता है।
'विशेष परिणाम' से क्या हुआ? यह 'मिकेनिकल चेतन' बन गया, 'पुद्गल' बन गया, 'पूरण-गलन' वाला बन गया। जब तक 'अपना' स्वरूप 'वह' है, 'बिलीफ' भी वही है, तब तक छूट नहीं पाएंगे।
प्रतिक्रमण किस चीज़ के करने हैं ? 'अपने' 'विपरिणाम' की वजह से ये जो संयोग मिलते हैं, वे (विपरिणाम) प्रतिक्रमण से मिट जाते हैं। वास्तव में दरअसल साइन्टिस्ट को प्रतिक्रमण की ज़रूरत ही नहीं है। यह तो इसलिए है कि लोग भुलावे में आ जाते हैं। असल साइन्टिस्ट तो इसमें उँगली डालेंगे ही नहीं। 'द वर्ल्ड इज द साइन्स!' (आप्तसूत्र-4177-4186)
प्रश्नकर्ता : तो फिर दादा, जब ये दो स्वतंत्र गुणधारी पुद्गल