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(१.११) जब विशेष परिणाम का अंत आता है तब ....
अवक्तव्य है और अवर्णनीय... तो फिर भाई इसमें क्यों ढूँढ रहे हो? बाहर ढूँढो न, वहाँ पर! ये (शास्त्र) तो सिर्फ बोर्ड ही बता रहे हैं, 'गो देअर (वहाँ पर जाओ ) ' । तो क्या फिर वहाँ पर बोर्ड के सामने ही बैठे रहना है ?
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वीतराग जानते थे, ये सारी बातें । हिन्दुस्तान में जो वीतराग हो चुके हैं, लेकिन उन वीतरागों ने जितनी बातें शब्दों में कही जा सकें, उतनी बातें बताईं। उससे ज़्यादा कैसे बता सकते थे ? शब्द से अर्थात् निःशब्द वस्तु की, आत्मा निःशब्द, अवक्तव्य और अवर्णनीय है। उसका वर्णन किस तरह करते ?
प्रश्नकर्ता : नहीं हो सकता ।
दादाश्री : और इस जगत् का वर्णन किस तरह करें, जहाँ पर शब्द हैं ही नहीं। दुनिया को यह कैसे समझ में आएगा ? ये कोई बुद्धि के खेल थोड़े ही हैं? क्या बुद्धि ऐसी है कि वहाँ तक पहुँच सके? बहुत सूक्ष्म बात है। मैं यह जो कह रहा हूँ, वह मोटी भाषा की बात कर रहा हूँ। मैंने जो देखा है न, उस बात को विस्तार पूर्वक समझाने में भी देर लगेगी। उस भाषा में शब्द हैं ही नहीं न !
प्रश्नकर्ता: नहीं ! लेकिन आपके ये जो साइन्टिफिक शब्द निकलते न, वे ऐसे निकलते हैं कि एक्ज़ेक्ट, बहुत ही स्पष्ट रूप से समझा देते
हैं
हैं।
दादाश्री : वैसा तो होगा ही न, क्योंकि देखा है, इसलिए। फिर भी एक्ज़ेक्ट तो कह ही नहीं सकते न ! वह भी तो देखे हुए का वर्णन है। शब्द हैं ही नहीं वहाँ पर । जैसे-तैसे ढूँढकर बोलने पड़ते हैं शब्द । अपनी भाषा में समझ में आ जाए ऐसा सब ढूँढकर कहना पड़ता है। इसके बावजूद भी यह वाणी व्यतिरेक गुणों में से निकली है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् वह गुण क्रोध - मान-माया - लोभ रहित है ? दादाश्री : नहीं- नहीं ! क्रोध - मान-माया - लोभ में से ही बनी हुई चीज़ है यह।