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(१.११) जब विशेष परिणाम का अंत आता है तब...
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कर लेते तब तक ऐसा चलता रहता है। इस तरफ अहम् भाव पूरी तरह से खत्म हो जाता है, और इस तरफ पूरी तरह से स्वभाव-भाव पूर्ण हो जाता है, ऐसा हिसाब है! अक्रम मार्ग में ज्ञान मिलते ही मूल विशेष भाव जो कि दो तत्त्वों के पास-पास आने के कारण होता है, वह चला जाता है लेकिन विशेष परिणाम के विशेष परिणाम, जो कि पर-परिणाम हैं, वे क्रमशः खत्म हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो यह विभाव पूरी तरह से चला जाता है या क्रमशः जाता है?
दादाश्री : जब विभाव मिटता है तो क्रमशः मिटता है और यह स्वभाव क्रमश: खिलता है। यानी जितना अनुभव होता जाता है उतना ही खिलता जाता है। स्वभाव एक ही दिन में नहीं खिल उठता।
प्रश्नकर्ता : ' लक्ष थकी उपर जई बेठां, संयोगोनो ज्ञाता-दृष्टा मात्र रह्यो.' ('लक्ष की वजह से ऊपर जा बैठा, संयोगों का ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहा।')
दादाश्री : विभाव मिट गया।
प्रश्नकर्ता : ' मोक्ष कह्यो छे स्वभाव तारो. विभावथी तुं पकडायो.' ('मोक्ष को तेरा स्वभाव कहा गया है। विभाव के कारण तू फँस गया है।') 'विभाव मटतां स्वरूपमां तुं क्रमे क्रमे हवे खीली रह्यो.' ('विभाव मिटते ही अब तू क्रमशः स्वरूप में खिल रहा है।') जितना स्वभाव उत्पन्न होता है, क्या उस विभाव को हम प्रज्ञा कहते हैं ?
दादाश्री : प्रज्ञा विभाव नहीं है। विशेष भाव कितना कम हुआ और स्वभाव कितना उत्पन्न हुआ, बढ़ा, जो उन सब को जानता है, वह प्रज्ञा है। उस समय जो यह सब जानता है कि 'आत्मा क्या है, वह पूर्ण प्रज्ञा है।
प्रश्नकर्ता : प्रज्ञा भी इस तरह से घटती-बढ़ती रहती है न?
दादाश्री : घटती-बढ़ती है न! घटती-बढ़ती है। गुरु-लघु होती रहती है क्योंकि अंत में जब स्वभाव भाव पूर्ण हो जाता है और अहम्