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(१.११) जब विशेष परिणाम का अंत आता है तब...
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प्रश्नकर्ता : अंदर ऐसा किस प्रकार से समझना है कि ये मेरे परिणाम हैं और ये विशेष परिणाम हैं?
दादाश्री : जो 'देखना और जानना' है, वे सभी परिणाम मेरे हैं और बाकी के सब जो हैं, वे इनके (पुद्गल के) हैं, पूरा ही कर्ता भाग। वह बुद्धि द्वारा जाना हुआ नहीं है। बुद्धि द्वारा देखना और जानना, वही पर-परिणाम हैं, वे विशेष परिणाम हैं।
चाय में चीनी डालते हैं तब पीसकर क्यों नहीं डालते? इसलिए क्योंकि चीनी का स्वभाव ही घुलने का है। उसी प्रकार आपको समझ लेना है कि आत्मा का स्वभाव ही ऊर्ध्वगामी है। शाश्वत है, आत्मा का प्रत्येक परिणाम सनातन है जबकि आत्मा के अलावा बाकी का सभी कुछ गुरु-लघु स्वभाव वाला है, वे विशेष परिणाम हैं। हमें तो सिर्फ जान लेना है कि ये विशेष परिणाम हैं और मैं तो शुद्धात्मा हूँ। यदि शुद्ध परिणाम द्वारा इस प्रकार के विशेष परिणामों से अलग नहीं रह पाते हैं तो तय कर लेना है कि ये सब जो हैं, वे विशेष परिणाम हैं और वे नाशवंत हैं जबकि मैं शाश्वत के स्वपरिणाम वाला हूँ।
अहम् और विभाव अपना कहना क्या है कि भाई, आत्मा में कोई भी बदलाव नहीं आया है। आत्मा जो है, वह वैसे का वैसा ही रहा है। सिर्फ विशेष भाव से तुझ में अहंकार खड़ा हो गया है। अहम् भाव खड़ा हो गया है, 'विशेष भाव अर्थात् 'मैं ही हूँ' अभी, और कौन है? मेरे सिवाय कोई है नहीं। दूसरा कोई तो है नहीं!'
प्रश्नकर्ता : क्या अहम् के विलय होने के बाद में विशेष भाव रहता है?
दादाश्री : नहीं! उसके बाद में ऐसा कहा जाएगा कि विशेष भाव खत्म हो गया।
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह धीरे-धीरे कम होता है या एक तरफ अहम् खत्म होता है और दूसरी तरफ विशेष भाव खत्म हो जाता है ?