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आप्तवाणी - १४ ( भाग - १)
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होगा ही न ! फूँककर पी । चाय क्या ऐसा कहती है कि तू एकदम से पी जा? एक आदमी तो, जब रेलगाड़ी चलने लगी तो फिर क्या करता ? चाय वाले ने कहा, 'भाई, कप लाओ, कप लाओ'। तो उसके मन में ऐसा आया कि चाय फेंक दूँगा तो पैसे बेकार जाएँगे न! तो सोचा, 'चलो न अंदर ही डाल दूँ'। तो वह एकदम से पी गया! उँडेल दी। होशियार था न! बहुत पक्का इंसान, तेरे जैसा ! लेकिन बेचारा जल गया । बहुत तकलीफ हुई बेचारे को ।
प्रश्नकर्ता: पैसे बचाए उसने ।
दादाश्री : हाँ, पैसे नहीं बिगड़े न । होंगे उसके भाग्य बहुत पक्के ! फिर आगे क्या है ?
प्रश्नकर्ता : ‘अज्ञान से मुक्ति अर्थात् ये खुद के परिणाम और ये विपरिणाम, इस प्रकार से इन दोनों को समझता है । '
दादाश्री : अज्ञान से मुक्ति, अब लोग इसका अर्थ क्या समझते हैं? लो! दादा ने यह खोज की कि अज्ञान द्वारा मुक्ति होती है । अरे भाई, ऐसा नहीं है । अज्ञान से मुक्ति अर्थात् अज्ञान में से मुक्त हो जाएगा, जबकि ये लोग क्या कहते हैं कि अज्ञान द्वारा मुक्ति मिलती है। अगर इसका उल्टा अर्थ निकालें तो क्या हो सकता है ? उसे खुद को भी अज्ञान है न! वह उसे अपनी भाषा में ले जाता है फिर ।
प्रश्नकर्ता : ये तीनों वाक्य अखंड हैं ।
दादाश्री : तीसरा वाक्य । दूसरा वाक्य तो उसे हेल्प करता है। इसलिए फिर उसका अर्थ गायब हो जाता है । जब सिर्फ यही वाक्य रहे न, तब कहता है, अज्ञान द्वारा मुक्ति मिलती है । लेकिन दूसरे लोग उसकी बात नहीं मानते, आसपास के वाक्यों को ही देखते हैं ।
प्रश्नकर्ता : अज्ञान से मुक्ति अर्थात् ये खुद के परिणाम हैं और ये विपरिणाम, दोनों को इस प्रकार से समझता है ।
दादाश्री : ये मेरे परिणाम हैं, वे विशेष परिणाम हैं।