________________
१३६
आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
होगा क्योंकि वह तो विशेष भाव है। और वह वियोगी स्वभाव वाला है। आकर चला जाएगा।
क्रोध-मान-माय-लोभ विशेष भाव से अतिरेक (इसका मतलब ही है व्यतिरेक) हो गए थे। आत्मा ने नहीं किए हैं और पुद्गल ने भी नहीं किए हैं, ये व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गए हैं। यदि इतना समझ में आ जाए न, तो फिर ऐसा भान चला जाएगा कि 'मुझे क्रोध-मान-माया-लोभ होते हैं।
यह जो व्यतिरेक गुण उत्पन्न हुआ है, इससे लोग उलझन में पड़ गए हैं कि मुझ में से ये क्रोध-मान-माय-लोभ जा नहीं रहे हैं। 'अरे, वह गुण तेरा है ही नहीं, तू उनसे अलग हो जा न! इन दादा के पास आकर तू अलग हो जा न! वे अपने आप ही चले जाएंगे। न जाने कहाँ चले जाएँगे! व्यतिरेक गुण हैं न! अन्वय गुण नहीं हैं वे।'
___ अनादि के विभाव, ज्ञान होते ही...
प्रश्नकर्ता : लेकिन करोड़ों वर्षों से जो विभाव मिला हुआ है, वह कैसे छूटेगा?
दादाश्री : वह सब नहीं देखना है कि विभाव करोडों वर्षों से है। सिर्फ दृष्टि बदलने से ही ऐसा दिखाई दिया है। दृष्टि इस तरफ हो जाए तो फिर कुछ भी नहीं है। ऐसे घूम जाए तो वापस पिछला वह सब दिखाई ही नहीं देगा न! छूट ही जाएगा, रहेगा ही नहीं।
क्रोध-मान-माया-लोभ उत्पन्न हुए तो फिर (अज्ञान दशा में) 'उसने' इस पुद्गल पर दृष्टि डाली कि 'यह मैंने किया', तो फिर (पुद्गल) उससे चिपक गया। वास्तव में वह नहीं करता है लेकिन उसे ऐसा आभास होता है कि 'मैं कर रहा हूँ। कोई लेशमात्र भी कुछ कर सके, वैसा नहीं है। बेकार ही इगोइज़म करता है। इगोइज़म अर्थात् कुछ भी न करना, एक सेन्ट भी न करना, इसके बावजूद भी ऐसा कहना कि 'मैंने किया', उसे कहते हैं इगोइज़म।
फर्क, ज्ञानी और अज्ञानी में... प्रश्नकर्ता : आपने एक बार कहा था कि 'संयोग तो ज्ञानी के भी