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(१.९) स्वभाव और विभाव के स्वरूप
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इसीलिए यह 'अक्रम विज्ञान' ऐसा है कि वह बाहर किसी में भी हाथ ही नहीं डालता। वह तो कहता है, 'तू तेरे भाव में, स्वभाव में आ जा'।
आत्मा की विभाविक अवस्था की वजह से राग-द्वेष हैं और स्वाभाविक अवस्था से वीतराग है!
जो खुद के स्वभाव में परिणामित होता है, उसे इस तरफ व्यवस्थित ही रहता है।
चेतनधारा चेतन स्वभाव में है, जड़धारा जड़ स्वभाव में है, दोनों अलग-अलग धाराएँ अपने-अपने स्वभाव में बह रही हैं। पहले तो दोनों एक ही धारा में बहकर विभाव में परिणामित हो रही थीं।
स्वभाव से विकारी नहीं है पुद्गल प्रश्नकर्ता : क्या पुद्गल के विकारी होने का स्वभाव है? दादाश्री : नहीं, उसका अपने आप विकारी होने का स्वभाव नहीं
प्रश्नकर्ता : तो विकारी क्यों हो जाता है?
दादाश्री : सक्रिय स्वभाव वाला है, इसलिए। अक्रिय नहीं है। जड़ खुद सक्रिय है, अर्थात् स्वयं क्रियावान है, क्रियावान ! बाकी के तत्त्व अक्रिय हैं, लेकिन यह सक्रिय है, लेकिन इस प्रतिष्ठित आत्मा के ये जो व्यतिरेक गुण हैं न, उनकी वजह से यह दशा हो गई है। वर्ना पुद्गल ऐसा नहीं है। रक्त निकले, पीप निकले, ऐसा नहीं है। व्यतिरेक गुण और फिर वे भी पावर चेतन सहित।
व्यतिरेक गुणों को हम खुद का मानते हैं। उन्हीं गुणों का हम पर असर होता है, वर्ना आत्मा वैसा नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो दादा, विभाव से जो पुद्गल विकृत हुआ है, अब आप जब ज्ञान के समय शुद्धात्मा का लक्ष्य देते हैं, लेकिन विकृत हो चुका पुद्गल शुद्ध करना पड़ेगा न?