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(१.७) छः तत्त्वों के समसरण से विभाव
प्रश्नकर्ता : हाँ, वह उत्पन्न होता है न तुरंत ही।
दादाश्री : और फिर अन्य तत्त्व मिल आते हैं। लेकिन वह तत्त्व विभाव होने में मदद नहीं करते। वे हैं तो सही लेकिन उदासीन भाव से हैं। ये दो तत्त्व तो, दोनों विकृत हो जाते हैं। दोनों से प्रकृति उत्पन्न होती है। यह जो पुद्गल है, तो जिसे हम पावर वाला कहते हैं, मिश्रचेतन कहते हैं, वह सारा विकृत पुद्गल है और यह जो व्यवहार आत्मा है, वह विकृत आत्मा है। इन सब के मिलने से ही यह सब हुआ है। वास्तव में आत्मा तो वैसा नहीं है, वास्तव में पुद्गल भी वैसा नहीं है। यह विकृति खड़ी हो गई है।
दुनिया में किसी करने वाले की ज़रूरत नहीं है। इस जगत् में जो चीजें हैं, वे निरंतर परिवर्तनशील हैं। उनके आधार पर सभी भाव बदलते ही रहते हैं और सबकुछ नई ही प्रकार का दिखाई देता है। छः मूल वस्तुओं में से जब जड़ और चेतन, ये दोनों सामीप्य में आते हैं तब विशेष परिणाम उत्पन्न होता है। बाकी के चार तत्त्व कहीं भी, किसी भी प्रकार से सामीप्य में आएँ तब भी उन पर कोई असर नहीं होता।
वे चारों उदास (उदासीन) भाव से हैं। जिसे जो करना हो, चोरी करनी हो, उसकी भी उदास भाव से हेल्प करते हैं और जिसे दान देना हो, उसकी भी हेल्प करते हैं। अतः उन्हें खुद का नहीं करना है। वे चारों हेल्पिंग हैं, लेकिन ये दो ही मुख्य हैं, जड़ और चेतन।
नहीं कोई किसी के विरुद्ध प्रश्नकर्ता : दोनों तत्त्व विरुद्धधर्मी हैं, इसके बावजूद भी किस प्रकार इकट्ठे रह सकते हैं?
दादाश्री : विरुद्धधर्मी नहीं हैं, उनके अपने धर्म अलग है। विरुद्धधर्मी कोई भी नहीं है। आमने-सामने कोई विरोध नहीं है। साथ में रह सकते हैं, सबकुछ कर सकते हैं लेकिन उनके अपने धर्म अलग हैं। हर एक का स्वतंत्र धर्म हैं। कोई किसी में कोई रुकावट नहीं डाल