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(१.७) छः तत्त्वों के समसरण से विभाव
रास्ता है। लेकिन पूरी दुनिया ऐसा ही समझती है, छोटा बच्चा भी उपचार समझ जाता है कि 'मैंने क्रिकेट खेला, मैं जीत गया।
___ नहीं है कर्ता कोई जगत् में आत्मा और पुद्गल के इकट्ठे होने से ऐसा जो हुआ है, उसके लिए शास्त्रकारों ने ऐसा कहा है कि, 'उपाधि (बाहर से आने वाला दुःख, परेशानी) स्वरूप उत्पन्न हो गया'। हमने उसे विशेष भाव कहा है। हम वास्तविक रूप से जैसा है वैसा बताते हैं। समझ में आए इसलिए बताया है कि यह विशेष ज्ञान है। खुद का ज्ञान तो है ही, उसके आगे का यह विशेष ज्ञान है। इसलिए यह संसार खड़ा हो गया है। फिर चला संसार! लेकिन अब यदि इससे जी भर गया हो तो ऐसा कुछ करो कि विशेष ज्ञान छूट जाए। यानी कि आपका ज्ञान तो है ही। आपके ज्ञान की पूँजी कम नहीं हुई है, एक चार आने जितनी भी।
समुद्र और सूर्य जैसी स्थिति से यह जगत् उत्पन्न हुआ है। किसी ने बनाया नहीं है। नैमित्तिक भाव है। यह समुद्र भी निमित्त है और सूर्य भी निमित्त है। सभी के संयोग स्वभाव की वजह से यह हो गया है। जब समुद्र और सूर्य, ये दोनों इकट्ठे होते हैं तब ऐसा हो जाता है लेकिन नैमित्तिक कर्ता। जब यह समझ जाओगे कि वास्तव में इस दुनिया में कोई कर्ता नहीं है तब इस दुनिया के सभी दुःख चले जाएँगे। नहीं तो दुःख कैसे जाएँगे। पागल जैसी बातें समझेंगे तो फिर सुख मिलेगा क्या? अगर हम मौसी को 'माँ-माँ' करेंगे तो फिर वहाँ पर माँ तो रह ही जाएगी। इसमें क्या मज़ा आएगा? मज़ा आएगा इसमें? यह वैसा ही करता रहता है। माँ को माँ की तरह से पहचानेंगे और मौसी को मौसी की तरह। उसमें कुछ मज़ा आएगा! तो कहते हैं, 'वे नहीं हैं मेरी'। इन सब को पहचानना नहीं चाहिए? अतः साइन्टिफिक प्रकार से पूरा रिजल्ट (परिणाम) देखकर सही बात बता रहा हूँ। इसमें सिर्फ शास्त्र की ही बात नहीं है पूरा रिजल्ट देखकर बता रहा हूँ और त्रिकाल सही बात है यह। यानी ऐसी बात है कि भविष्य में इसे कोई काट नहीं सकता। इसमें छपी हुई हैं ये सारी बातें। इसीलिए सभी पुस्तकें छप गई हैं और जगत् का कल्याण होना ही चाहिए।