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आप्तवाणी - १४ (भाग-१)
होता है) के गुण हैं, आत्मा में ऐसे गुण नहीं हैं । अर्थात् जो अपने गुण नहीं हैं, उनकी ज़िम्मेदारी हम क्यों लें ? जो घटते-बढ़ते हैं न, वे सब पुद्गल के गुण हैं।
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यहाँ पर यदि हम से ज्ञान ले ले तो उन्हें होने वाले क्रोध - मानमाया-लोभ पुद्गल के गुण हैं और अगर ज्ञान नहीं लिया तो आत्मा के गुण हैं। वास्तव में आत्मा के गुण नहीं हैं, लेकिन वह खुद ही कहता है कि 'मैं चंदूलाल हूँ'। जो नहीं है, वही कहता है। खुद का ऐसा गुण है ही नहीं, उसे वह खुद पर ओढ़ लेता है
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तो ऐसा है, कि यदि हम से ज्ञान लेकर हमारी आज्ञा में रहे तो फिर क्रोध - मान-माया - लोभ होने पर भी उसे स्पर्श नहीं करेंगे। कुछ भी नहीं होगा। समाधि नहीं जाएगी।
धाम
आत्मा को कभी भी चिंता नहीं होती । आत्मा तो अनंत सुख का है । खुद ही अनंत सुख का धाम है। उसे कोई छू ले तो उसे भी सुखी बना देता है । और लोग ऐसा मान बैठे हैं कि आत्मा ही चिंता करता है और आत्मा ही दुःखी होता है और आत्मा को ही ये सारी उपाधियाँ (बाहर से आने वाला दु:ख ) हैं । वह बोलने वाला दूर रह जाता है। बोलने वाला कौन है इसमें ?
प्रश्नकर्ता: वही । यह अहंकार ही है
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दादाश्री : वह दूर रह जाता है। यानी खुद ने अपने आपको बेकसूर सिद्ध कर दिया, सभी को गुनहगार बना दिया । मूल गुनहगार ही दूसरों को गुनहगार सिद्ध कर देता है। खुद गुनहगार है। उससे फिर मिथ्यात्व बढ़ता जाता है, रोंग बिलीफ बढ़ती जाती हैं।
आत्मा, आत्मा की जगह पर है। साइन्टिफिक इफेक्ट है यह तो । किसी ने कुछ किया ही नहीं है । सभी धर्म वाले जो मानते हैं, ऐसा कुछ है ही नहीं। तीर्थंकरों के भाव में था यह ! मैं जो कह रहा हूँ, वह तीर्थंकरों का सीधा ज्ञान है । शास्त्र से आगे की बात है ।