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(१.९) स्वभाव और विभाव के स्वरूप
दादाश्री : जो स्वभाव हमेशा के लिए है, परमानेन्ट है, वह सनातन कहलाता है।
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स्वभाव, सत्ता और परिणाम
प्रश्नकर्ता : आत्मा में विपरिणाम, वह क्या स्वभाव से विपरिणाम है ? विपरिणाम, आत्मा की मूल सत्ता है या संयोगी सत्ता है ? और कौन सा द्रव्य उस सत्ता का मूल कारण है ?
दादाश्री : आत्मा के साथ इन सभी चीज़ों का योग होता है। इसलिए यह विभाव हुआ है, इसीलिए संसार खड़ा हो गया है । 'स्वभाव से विपरिणाम है ?' उसके लिए हम मना करते हैं । नहीं ! स्वभाव से विपरिणाम नहीं हो सकता । उसका जो स्वभाव है, उसमें कभी भी विपरिणाम, विभाव होता ही नहीं है । 'क्या विपरिणाम आत्मा की मूल सत्ता है?' तो कहते हैं, 'नहीं! मूल सत्ता स्वभावी ही है । स्वपरिणाम है, विपरिणाम नहीं है !' अतः यह आत्मा की मूल सत्ता नहीं है । यह विभाविक सत्ता है, स्वाभाविक सत्ता नहीं है । लेकिन यदि पूछें कि 'यह विपरिणाम आत्मा की मूल सत्ता है या संयोगी सत्ता है ? ' तो कहते हैं, 'संयोगी सत्ता है'।
प्रश्नकर्ता : तो क्या विपरिणाम संयोगी सत्ता है ?
दादाश्री : हाँ। यह पुद्गल मिला इसलिए यह सब हो गया। कौन सा द्रव्य ‘उस सत्ता का मूल कारण है ?' मूल कारण में तो यह पुद्गल द्रव्य मिला, उसी कारण यह विपरिणाम हो गया। बस ।
स्वभाव कर्म का कर्ता....
प्रश्नकर्ता : ‘आत्मस्वभाव कर्म का कर्ता है, अन्यथा अकर्ता है । ' वह किस प्रकार से ? वह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : खुद के स्वस्वभाव के कर्म का कर्ता है। आत्मा अन्य किसी कर्म का कर्ता नहीं है। यह आत्मा प्रकाश जैसा है । वह खुद के स्वभाव (अनुसार) करता है । यह जो लाइट है, वह खुद के स्वभाव कर्म