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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
दादाश्री : लेकिन इसमें कर कौन रहा है? प्रश्नकर्ता : यों कहें तो कुदरत और यों कहें तो सूर्य की गर्मी
दादाश्री : सूर्य करता है। नहीं? सूर्य को कर्ता कहेंगे? तो हमें समझ में आता है कि इसके लिए सूर्यनारायण ही ज़िम्मेदार हैं। ये सूर्यनारायण ही ऐसा कर रहे हैं। वे ही रिस्पोन्सिबल होने चाहिए। तब हम सूर्यनारायण को ब्लेम करते हैं। सूर्यनारायण से पूछते हैं, 'अब तू यहाँ पर क्यों इस समुद्र में से भाप बना रहा है?' तो वह भी निडरता पूर्वक कहता है 'मैं तो नहीं कर रहा हूँ, मुझ पर आक्षेप मत लगाओ'। 'क्यों? इस समुद्र में से तू ही भाप निकाल रहा है'। तो सूर्य कहेगा कि, 'यह मेरा गुण नहीं है। निमित्त के तौर पर भले ही मैं दिखाई देता हूँ लेकिन यह गुण मेरा नहीं है'। 'तो किसका गुण है ? तब फिर तेरे अलावा अन्य कौन कर रहा है ऐसा? तो तूने भाप क्यों बनाई ?' तब वह कहता है, 'देखो मुझसे इस तरह बात मत करना, मैं नहीं कर रहा हूँ। तब यदि पूछे कि 'और कौन कर रहा है? जब तू नहीं होता तब इस समुद्र में से भाप नहीं बनती। तू रहता है तभी भाप बनती है'। तब वह कहता है, 'यदि मैं भाप बना रहा होता तो प्लॉट (जमीन) पर भी बनती। प्लॉट पर कुछ भी नहीं होता। इसलिए मैं इसका कर्ता नहीं हूँ। भाई, यदि मैं कर रहा हूँ तो मैं तो इन पत्थरों पर भी घूमता हूँ, वहाँ तो नहीं बनती। यदि मैं कर रहा होता तो इस रोड पर भाप बनती और पहाड़ों पर भी भाप बनती न? अतः यह भाप मैं नहीं बनाता हूँ।
सूर्य तो अपनी दिशा में से उगता है और अस्त हो जाता है, इससे इसे कोई लेना-देना नहीं है। अतः यह भाप निकालने का गुण सूर्य का भी नहीं है और इस समुद्र का भी नहीं है। भाप, वह तो व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गया है। सूर्य भी वह नहीं करता है और समुद्र भी नहीं करता लेकिन इन दोनों के इकट्ठे होने से हर एक का अपना गुणधर्म तो उसमें साबुत रहता है और नया व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार से ये सब उत्पन्न हो गया है। सूर्य नमित्त है, समुद्र निमित्त है। आत्मा को कुछ भी नहीं करना पड़ता।