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(१.६) विशेष भाव - विशेष ज्ञान - अज्ञान
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दादाश्री : फिर भी जिस प्रकार से लोहे पर जंग दिखाई देता है, उसी प्रकार से यह संसार खड़ा हो गया है।
जंग ही है अहंकार यह आत्मा तो परमात्मा है। जिस तरह लोहे पर जंग लग गया, किसी ने लगाया नहीं है, उसी प्रकार इसमें 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भ्रांति उत्पन्न हो गई है। आत्मा तो उसी दशा में है। आपमें जो आत्मा है न, वह तो मुक्त दशा में ही है। उसे कोई अज्ञानता नहीं हुई है। यह विशेष गुण उत्पन्न हो गया है। फिर भी आत्मा में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
प्रश्नकर्ता : आपने यह जो उदाहरण दिया है, उसकी तुलना आत्मा के साथ कैसे हो सकती है?
दादाश्री : इस आत्मा के साथ यह जड़ तत्त्व है। ये दोनों इकट्ठे हो गए हैं न, इसलिए अहंकार उत्पन्न हो गया है।
प्रश्नकर्ता : उसी को जंग कहते हैं?
दादाश्री : हाँ, जैसे उसमें जंग लग गया था, उसी प्रकार यहाँ पर अहंकार उत्पन्न हो गया है। हम उस अहंकार को निकाल देते हैं, इसलिए वापस राह पर आ जाता है। हम दवाई लगाकर (आत्मज्ञान देकर) अहंकार निकाल देते हैं तो फिर हो जाता है, कम्प्लीट हो जाता है, फिर चिंतावरीज़ कुछ नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : इस उदाहरण में लोहे को आत्मा का प्रतीक मान रहे हैं न?
दादाश्री : हाँ, अर्थात् यह जो ऊपर लगा है न, वह विशेष भाव उत्पन्न हो गया है।
प्रश्नकर्ता : यदि पूरा संसार विशेष भाव है, तो इतना तो पता चलना चाहिए न कि, 'यह मैं खुद नहीं हूँ। यह विशेष भाव मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा स्वरूप तो शुद्ध है'।