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आप्तवाणी - १४ ( भाग - १ )
आप मुझे क्यों डाँट रहे हैं ? वह तो यहाँ पर रखा तो इसमें जंग लगेगा ही' । ' अरे, लेकिन जंग किसने लगाया ?' फिर क्या पता लगाते हैं कि यह किसका गुनाह है ? तब हमें आसपास वाले लोग कहेंगे कि समुद्र के किनारे रखा इसलिए ऐसा हुआ ।
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तब फिर अगर हम इस खारी हवा से कहें कि, 'तूने हमारे लोहे को क्यों बिगाड़ा ? हमने तेरा क्या नुकसान किया है ?' तब खारी हवा कहेगी, ‘मैं कहाँ बिगाड़ती हूँ ? मुझ पर क्यों बिना वजह के आक्षेप लगा रहे हो? मुझ में बिगाड़ने का गुण है ही नहीं। मैं तो अपने स्वभाव में रहती हूँ, मुझे क्या लेना-देना ? यदि मुझ में बिगाड़ने का गुण होता तो मैं तो हमेशा बहती रहती हूँ लेकिन इन लकड़ों - वकड़ों को कभी कुछ नहीं होता। यह तो, लोहा ऐसा है इस वजह से ऐसा होता है, इसमें हमारा क्या दोष ?' उसने भी समुद्र जैसा ही जवाब दिया कि, 'सिर्फ आपका यह लोहा ही ऐसी शिकायत करता है, अन्य कोई ऐसी शिकायत नहीं करता । आपका लोहा ही ऐसा है, तो मैं क्या करूँ ? और किसी पर ऐसा असर नहीं होता । आपके लोहे की वजह से ऐसा असर होता है । इसमें हमारा दोष नहीं है। आपके लोहे का दोष होगा। आप बेकार ही हमें क्यों डाँट रहे हो!' तो फिर वह खारी हवा गुनहगार सिद्ध नहीं होती । तब फिर हम कहते हैं कि बाहर वाला कोई गुनहगार नहीं लगता।
अर्थात् साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स। यह ज़ंग लोहे ने नहीं लगाया है। बाकी, लोहे में जंग लगने का स्वभाव नहीं है । यदि जंग लगने का स्वभाव होता न, तो आर. सी. सी. के अंदर डाले हुए लोहे को अगर सौ साल बाद भी निकाला जाए तो वे सलिये वैसे के वैसे ही रहते हैं। उसका स्वभाव ऐसा नहीं है । उसे ये दूसरे तत्त्व मिल जाएँ तो ? आर. सी.सी. में जो है तोड़ो न ! हमने तोड़ा हुआ है। पचास साल पहले डाले हुए सलिये भी तोड़े हैं। एक्ज़ेक्ट, जैसे आज खरीदने जाओ, वैसे । हं... इस पर से आपको समझ में आया कि मैं क्या कहना चाहता हूँ? कोई गुनहगार लगता है ?
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प्रश्नकर्ता : यों तो कोई गुनहगार नहीं दिखाई देता ।