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आप्तवाणी - १४ (भाग-१)
दादाश्री : उस पर कुछ असर ही नहीं हुआ है। हम जब आत्मज्ञान देते हैं तो शुद्ध हो जाता है । फिर, 'यह जंग भी मेरा स्वरूप नहीं है और यह संयोग भी मेरा स्वरूप नहीं है । अहंकार ने झंझट करना बंद कर दिया न! अहंकार से यह संसार खड़ा हो गया है और आत्मज्ञान के बाद अहंकार बंद हो जाता है, वह अहंकार चला जाता है । यह तो आपका यह भरा हुआ (डिस्चार्ज) अहंकार बोल रहा है, उसे आप सचमुच का अहंकार मानते हो ।
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विशेष भाव से अहंकार उत्पन्न हुआ, फिर उसमें से प्रकृति उत्पन्न होती है। लोहा लोहे के भाव में है और प्रकृति, प्रकृति के भाव में है । इन दोनों को अलग कर दिया जाए तो लोहा लोहे की जगह पर है, प्रकृति, प्रकृति में है। जब तक एकाकार हैं तब तक जंग बढ़ता ही रहेगा, दिनोंदिन ।
इस मूल पुरुष को कुछ भी नहीं होता । 'खुद' (मैं) खुद के स्वभाव को भूल गया है, खुद का भान भूल गया है। जब तक वह खुद की जागृति में नहीं आ जाता तब तक 'वह' प्रकृति भाव में रहा करता है। प्रकृति अर्थात् खुद के स्वभाव की अजागृति और भ्रांति की जागृति, वह प्रकृति कहलाती है ।
भोगने की मात्र मान्यता है
प्रश्नकर्ता : दादा! लोहा तो स्थूल चीज़ है, उसमें कोई शक्ति नहीं है जबकि आत्मा तो सर्व शक्तिशाली है। उसे किस प्रकार से जंग लग सकता है ?
दादाश्री : वह सर्व शक्तिमान स्वभाव में नहीं आया है। अन्य संयोगों के दबाव में है न! फिर भी खुद के गुणधर्म खोए नहीं हैं। विशेष गुणधर्म उत्पन्न हो गया है और उसमें से इगोइज़म उत्पन्न हो गया । दुःख कौन भुगतता है ? इगोइज़म भुगतता है । सुख कौन भोगता है ? इगोइज़म भोगता है। इसमें आत्मा बिल्कुल भी हाथ ही नहीं डालता। सबकुछ यह इगोइज़म ही भोगता है । इगोइज़म बुद्धि की सलाह से चलता है ।