________________
८/
आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
दादाश्री : ऐसा? जब अमल (असर) उतारने के संयोग मिलेंगे तब अमल उतर जाएगा। यह भी अमल ही है न! वह शराब का अमल चढ़ा है और यह जो खाता है, पीता है, रोज़ उसका अमल चढ़ता रहता है, अमल में ही घूमता रहता है। वैसा ही अमल है यह, लेकिन भ्रांति है यह, वह भी भ्रांति कहलाती है। सेठ उल्टा बोलते हैं न?
प्रश्नकर्ता : उल्टा ही बोलते हैं। दादाश्री : और फिर उतर जाने के बाद? प्रश्नकर्ता : सीधा बोलते हैं।
दादाश्री : हम कहें कि 'आपने ऐसा कहा था साहब?' तब वे कहेंगे, ‘साली ये पी ली थी इसलिए, नहीं तो क्या मैं कभी ऐसा करूँगा! मैं ऐसा नहीं बोल सकता'। आत्मा की वही दशा हुई है। आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा है। आत्मा तो वैसा ही है। सेठ का भी कुछ नहीं बिगड़ा था। सेठ भी वैसे ही थे। यह ज्ञान बिगड़ गया था उनका। इसमें ज्ञान बिगड़ता है और उसमें दर्शन बिगड़ता है। वह उल्टा ही दिखाता है। जैसा दिखाई देता है, वैसा ही बोलता है न फिर।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् पुरुष और प्रकृति का संयोग हो गया न?
दादाश्री : खुद है पुरुष, आत्मारूपी है, भगवान ही है खुद लेकिन दबाव से यह प्रकृति बन गई। जैसे कि वे सेठ, 'मैं प्रधानमंत्री हूँ', ऐसा कह रहे थे, आसपास वाले सभी चौंक जाते हैं कि, 'सेठ ऐसा कह रहे हैं!' इसी प्रकार से (व्यवहार) आत्मा बहुत दबाव की वजह से विशेष भाव में आ जाता है। विशेष भाव अर्थात् 'यह सब किसने किया? मैं ही हूँ करने वाला', ऐसा सब भान उत्पन्न होता है और उसी से अपने आप ही प्रकृति बन जाती है। किसी को बनाने की ज़रूरत नहीं है। प्रकृति अपने आप ही किस तरह से बन जाती है, वह मैंने देखा है। मैं देखकर बता रहा हूँ इस प्रकृति के बारे में। इसीलिए इस विज्ञान का खुलासा हो रहा है न, नहीं तो खुलासा होगा ही नहीं न? कोई भी किसी चीज़ का कर्ता नहीं है।