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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
गई है। 'यह मेरा स्वरूप नहीं है, यह मैं नहीं हूँ'। अर्थात् भ्रांति हो गई
आत्मा नहीं बिगड़ा है। यदि भ्रांति हुई होती तो वापस ठीक भी नहीं हो पाता लेकिन इस दुनिया में ऐसा कहना पड़ता है कि भ्रांति है। दुनिया की भाषा है, लोकभाषा है।
स्टेशन पर खड़े हुए हों और गाड़ी नज़दीक से जाए तब चक्कर आ जाते हैं और कुछ देर बाद वे चक्कर ठीक हो जाते हैं। लेकिन जब तुझे अनुभव हो जाएगा उसके बाद चक्कर नहीं आएंगे। उसी प्रकार ये जो चक्कर चढ़ गए हैं, उसमें कुछ भी हुआ ही नहीं है। उसमें तो, ट्रेन में तो भ्रांति के चक्कर आते हैं और ये सचमुच में चक्कर आ गए हैं। अतः ज्ञानी पुरुष की ज़रूरत है। ट्रेन वाले चक्कर तो प्याज़ सुंघाने से खत्म हो जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी कुछ सुंघा देते हैं (आत्मज्ञान देते हैं) तब चक्कर खत्म हो जाते हैं। यह तो, आत्मा और संयोग दो ही हैं। वे संयोग आत्मा को गाड़ी के पास खड़ा करते हैं तो चक्कर आ जाते हैं। इसी प्रकार ये संयोग गाड़ी जैसे हैं। ये लोग गाते हैं कि, हमारे कर्मों ने हमें बाँधा है। नहीं! अरे, कुछ भी नहीं हुआ है। मात्र ज़रा चक्कर आए हैं (अज्ञानता हो गई है), वे उतर जाएँगे तो जैसे कुछ भी हुआ ही नहीं है। ये तो झूले (फ्लायव्हील) में बैठकर कहते हैं कि सबकुछ घूम रहा है। नहीं भाई! बाहर कुछ भी नहीं घूम रहा है, तू ही घूम रहा है। ऐसा है ! ज्ञानी पुरुष यह सब देखकर बैठे हैं।
फर्क, विशेष भाव और विशेष ज्ञान में स्थिर भावों को ज्ञान गुण व दर्शन गुण कहा गया है। अस्थिर भावों को पर्याय कहा गया है। आम आए तो आम को देखता और जानता रहता है, खुद के पर्यायों से। अन्य कोई ज्ञेय आए तो उसे देखता रहता
है।
प्रश्नकर्ता : विशेष भाव पर्यायरूपी ही हुए न? वे स्थिर भाव नहीं हैं, अतः पर्यायरूपी हुए न?