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(१.६) विशेष भाव - विशेष ज्ञान - अज्ञान
दादाश्री : नहीं! विशेष भाव, वे पर्याय नहीं हैं। विशेष भाव किसी और के असर से उत्पन्न हुए भाव हैं। अन्य वस्तु के असर से, दूसरी वस्तु के सामीप्य भाव की वजह से उत्पन्न हुए भाव, वे विशेष भाव कहलाते हैं। यदि सामीप्य न हो तो कुछ भी नहीं है।
अभी अपने महात्मा विशेष भाव को नहीं समझते। कई बार बताया ज़रूर है लेकिन समझते नहीं हैं कि विशेष भाव क्या है?
प्रश्नकर्ता : विशेष भाव और विशेष ज्ञान में क्या फर्क है? दादाश्री : दोनों शब्दों में ही फर्क है, नहीं लगता?
विशेष भाव तो सिर्फ अहंकार है, 'मैं'। विशेष ज्ञान की बात का और इसका, दोनों का कोई लेना-देना ही नहीं है। चचेरे भाई-बहन भी नहीं हैं और दूर के रिश्ते में भी नहीं हैं, कुछ भी नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : क्या ऐसा है कि इस विशेष ज्ञान के उत्पन्न होने से वह व्यतिरेक उत्पन्न होता है ?
दादाश्री : व्यतिरेक होने पर ही विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है। लेकिन विशेष ज्ञान होने पर व्यतिरेक उत्पन्न नहीं होता। व्यतिरेक बाप (मुख्य) है। विशेष भाव तो उत्पन्न होने वाला व्यतिरेक गुण है जबकि यह तो विशेष ज्ञान है और जिस ज्ञान की ज़रूरत न हो उसे बीच में लाने का क्या अर्थ है ? हम विशेष ज्ञान में नहीं उतरते हैं कि यह नीम है या आम है या अमरूद है वगैरह, नहीं तो कब अंत आएगा? और यदि ऐसा कहें कि सब पेड़ हैं, तो वह ज्ञान है। सामान्य ज्ञान अच्छा है न!
सामान्य ज्ञान को दर्शन कहा गया है। और दर्शन की ही कीमत है मोक्ष में। सामान्य भाव से रहना चाहिए। पुदगल में विशेष ज्ञान देखने जाते हैं, 'यह क्या है, यह क्या है?'
प्रश्नकर्ता : जब खुद की, देखने वाले की दृष्टि में भेद रहे तब पक्षपात दिखाई देता है न?
दादाश्री : जब खुद को विशेष ज्ञान देखने की इच्छा होती है न,