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(१.६) विशेष भाव - विशेष ज्ञान - अज्ञान
हम समझते हैं कि 'भाई! यह अज्ञान है और यह ज्ञान'। बाकी, अज्ञान हमेशा अंधकारमय होता है लेकिन यह अज्ञान तो प्रकाश है, क्षयोपशम प्रकाश है। पूर्ण प्रकाश नहीं है, यह क्षयोपशम है! अतः यह विशेष भाव है। अब यहाँ से कब छूटेगा? तो कहते हैं कि, जब खुद के निज स्वरूप का भान हो जाएगा तब वापस मूल गुण में आ जाएगा। तब यह सारा वापस खत्म हो जाएगा।
यदि यह स्वभाव में परिणामित नहीं होता तो फिर वह वस्तु ही नहीं है। हमेशा के लिए परभाव में नहीं रहता। परभाव सिर्फ आत्मा के लिए ही होता है और वह अज्ञान परिणाम है। उसे हम विशेष परिणाम कहते हैं। एक व्यक्ति की आँखें तो बहुत अच्छी हैं, वह अंधा तो नहीं है लेकिन जाते-जाते एकदम से कोहरा छा जाए न, तो पाँच फुट आगे चलने वाला व्यक्ति भी दिखाई नहीं देता। ऐसा होता है या नहीं? ये सब परिणाम ऐसे ही हैं। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं ये। हमने इस जगत् को जैसा है वैसा देखकर बताया।
इन सभी संयोगों का दबाव है। उसमें जब आत्मा पर ज़रा सा भी दबाव आ जाए तब उसका असर होता है, इफेक्ट होता है। अन्इफेक्टिव होने के बावजूद भी इफेक्ट होता है। जबकि आत्मा तो स्वाभाविक ज्ञान से बाहर कभी गया ही नहीं, क्रिया में तो गया ही नहीं कभी भी। लेकिन खुद का जो ज्ञान-दर्शन स्वभाव है, वह दर्शन विभाविक हो गया।
अपने साथ कई बार क्या ऐसा नहीं होता कि चक्कर आते हैं और बेहोश हो जाते हैं ? आँखें खुली हों फिर भी अगर कोई हम से पूछे कि, 'आपका नाम क्या है? आपका नाम क्या है?' तो कुछ भी पता नहीं चलता। तब लोग कहते हैं न कि 'इसे होश नहीं है'। तो उससे जब इतना असर हो जाता है तो यह तो कितना बड़ा असर हो चुका है! आत्मा पर कैसा दबाव आया है। जो भयंकर आवरण ला दें ऐसे सब संयोगों का दबाव और फिर वे सारे संयोग कैसे हैं? जैसा भगवान का (विभाविक) ज्ञान होता है, वहाँ पर वैसा ही आकार बन जाता है।