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(१.५) अन्वय गुण-व्यतिरेक गुण
लिया है। इतना अधिक मान लिया है, इतना साइकोलॉजिकल इफेक्ट हो गया है कि उसी रूप हो गए हो।
प्रश्नकर्ता : यह माना किसने है? आत्म तत्त्व ने ऐसा माना है? दादाश्री : नहीं, आत्म तत्त्व नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो फिर आप जो 'मुझे' कह रहे हैं, वह कौन है?
दादाश्री : यह विशेष गुण उत्पन्न हुआ है न, वही मान रहा है। और 'आप' विशेष गुण में हो। 'आप' अपने स्वभाव में से अलग हो गए हो।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् आत्मा के स्वभाव में 'हटने का गुण' है ? उसमें से वह हट सकता है?
दादाश्री : हट ही गया है न यह सब। फिर भी आत्मा का दोष नहीं है। आत्मा तो वैसे का वैसा ही है।
प्रश्नकर्ता : यह रोंग बिलीफ किसे हो गई है?
दादाश्री : जो भोग रहा है उसे। जो रोंग बिलीफ भोगता है, उसे हुई है।
प्रश्नकर्ता : अभी तो हम भोग रहे हैं।
दादाश्री : 'उसे' इन्टरेस्ट है इसलिए यह सब भोग रहा है। रोंग बिलीफ में 'यह मेरी वाइफ है, मैं इसका ससुर हूँ, मैं मामा हूँ, चाचा हूँ', और इस प्रकार से जो इन्टरेस्ट आता है न, उस बिलीफ की वजह से ही यह जगत् बना है और राइट बिलीफ से जगत् अस्त हो जाएगा। रोंग बिलीफ से ही शादी करता है, विधुर होता है, घर बसाता है, बेटे का बाप बनता है, दादा बनता है, यह सब रोंग बिलीफ से है।
प्रश्नकर्ता : यह रोंग बिलीफ ही विशेष परिणाम है या विशेष परिणाम के कारण रोंग बिलीफ हो गई है।
दादाश्री : विशेष परिणाम के कारण ही रोंग बिलीफ उत्पन्न हो गई है।