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विभाविक आत्मा के आठ गुण कहे गए हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय... वगैरह वगैरह जो कि आवरण की वजह से हैं। उनकी शुद्धि हो जाने पर शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख वगैरह उत्पन्न होते हैं। जो कि बाद में स्वाभाविक गुणों में आ जाते हैं।
ज्ञान, दर्शन, शक्ति व सुख, जो आत्मा के गुण हैं, उन पर जो आवरण लाते हैं, वे विभाविक दशा के गुण हैं। वे घातीकर्म हैं। उसी प्रकार नाम, गोत्र, वेदनीय, आयुष्य, जो अघातीकर्म कहलाते हैं, वे सभी पर्यायों के कारण हैं।
सिद्धात्मा पूरे जगत् के जीव मात्र के ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, जो कि उनका गुण है। ज्ञान-दर्शन। लेकिन वे बाहर नहीं देखते, सभी ज्ञेय उनके अंदर ही झलकते हैं, दिखाई देते हैं। जिस प्रकार से दर्पण में दिखाई देते हैं, उसी प्रकार खुद के द्रव्य में दिखाई देते हैं।
आत्मदर्शन किसे होता है ? पर्यायों को? नहीं। 'दर्शन' विभाविक 'मैं' को होता है। 'मैं चंदू हूँ' की बजाय 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान होने पर अशुद्ध पर्याय शुद्ध हो जाते हैं इसलिए 'मैं' को एक साथ मूल द्रव्यगुण और पर्याय का अनुभव होता है।
जब तक अशुद्ध पर्याय हैं, तब तक चित्त और प्रज्ञा अलग माने जाते हैं। जब सभी पर्याय संपूर्ण रूप से शुद्ध हो जाते हैं तो उसे केवलज्ञान कहा गया है, उसके बाद में यह अलग नहीं रहता।
जब तमाम डिस्चार्ज कर्म ज्ञानी की आज्ञा में या शुद्ध उपयोग में रहकर खपाए जाते हैं, तब गुण शुद्धात्मा फलित होता है, वर्ना नहीं।
शुद्ध चित्त पर्याय रूपी है और शुद्धात्मा द्रव्य गुण रूपी है लेकिन अंत में सब एक ही वस्तु है।
पर्याय आत्मा का गुण नहीं है, वह आत्मा के गुण की अवस्था है। द्रव्य या गुण नहीं बदलते, पर्याय बदलते हैं।
शुभाशुभ पर्याय नहीं हैं। वे उदय कहलाते हैं।
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