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ही मन के पर्यायों को जान सकती है जबकि आत्मा मन के सभी पर्यायों को, बुद्धि के और अहंकार के सभी पर्यायों को जानता है । ऐसी बातें जानता है जो बुद्धि से परे हैं ।
जो चंदूभाई (मंगलदास) को देखता है, वह बुद्धि है और बुद्धि को जो देखता है, वह आत्मा है और आत्मा से आगे परमात्मा पद है। पहले शुद्धात्मा पद आता है, आगे जाकर वह परमात्मा पद की ओर जाता है। जो परमात्मा बन जाता है, उसे केवलज्ञान हो जाता है । इसकी प्राप्ति के लिए निरंतर देखने-जानने का उपयोग रहना चाहिए। (अधिक विस्तृत सत्संग के लिए आप्तवाणी - १३ (पू.) चेप्टर ७, देखने वाला-जानने वाला और उसे भी जानने वाला, पेज - ४९३ को पढ़ना है ।)
जो देह और आत्मा को अलग-अलग हैं, ऐसा देखती है, वह प्रज्ञा है। दो चीजें देखती हैं, एक है प्रज्ञा और दूसरा, प्रज्ञा का कार्य पूर्ण होने के बाद आत्मा ! उसके बाद वह बन जाता है ' ज्ञायक'! फिर वह बाकी सभी तत्त्वों को, उनके गुणधर्म क्या - क्या हैं, उन्हें जानता है I
जो ज्ञान खुद के दोष दिखाए, वह ज्ञान नहीं है लेकिन ज्ञान का पर्याय है।
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प्रज्ञा आत्मा का पर्याय नहीं है।
आत्मा बाहर जो भी देखता है, वे सभी पर्याय हैं । पर्याय टेम्परेरी हैं। आत्मा के एक नहीं, अनेक नहीं, असंख्य नहीं लेकिन अनंत पर्याय होते हैं।
आत्मा के पर्याय दो प्रकार के हैं ।
(१) आत्मा के स्वभाव के पर्याय - शुद्ध होते हैं
-मान्यताएँ नहीं होतीं.
-संकल्प-विकल्प नहीं होते,
- विनाशी होते हैं
(२) आत्मा के विभाव के पर्याय -अशुद्ध होते हैं
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