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- रोंग बिलीफ -संकल्प-विकल्प
-दो तत्त्वों के संगदोष से उत्पन्न हुए आत्मा के व्यतिरेक गुणों में से ('मैं' में से) पर्याय उत्पन्न होते हैं।
- विनाशी हैं।
आत्मा का गुण ज्ञान है और ज्ञान से 'जानना', वह आत्मा का पर्याय कहलाता है। जैसे-जैसे ज्ञेय बदलते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान पर्याय बदलते हैं। ज्ञान के पर्याय से ही ज्ञेय को जो कि पौद्गलिक हैं, उन्हें 'आप' जान सकते हो। उसके बाद पर्यायों का नाश हो जाता है।
क्या आत्मा के ऐसे स्वतंत्र पर्याय भी हैं, जो कहीं भी पुद्गल के संबंध में नहीं आते! सिद्ध क्षेत्र में भी पर्याय हैं। जहाँ पर आत्मा है, वहाँ पर्याय होते ही हैं। गुण, पर्याय और द्रव्य, सभी साथ में रहते हैं।
दो भाग दृष्टा और दो भाग दृश्य, इस प्रकार कुल चार भाग हैं। दो प्रकार के दृष्टा :- (१) प्रज्ञा या शुद्धात्मा।
(२) विभाविक आत्मा के पर्याय यानी कि विभाविक 'मैं' के पर्याय, वह बुद्धि है।
दो प्रकार के दृश्य :- (१) प्रतिष्ठित आत्मा (चंदू)। (२) प्रतिष्ठित आत्मा के कार्य (चंदू क्या कर रहा है, वह)।
ज्ञेय और दृश्य, दोनों एक ही चीज़ हैं लेकिन जब ऐसा लगता है कि 'कुछ है', तब दृष्टा है और जब जानता है कि क्या है', तब ज्ञातापद में है। मूल आत्मा यानी भगवान खुद तो वीतराग रहते हैं, वे प्रतिष्ठित आत्मा के पर्यायों को नहीं देखते, वे तो अविनाशी तत्त्व को ही, उसके गुण व पर्यार्यों को ही देखते और जानते हैं।
आत्मा के पर्याय भी वीतराग हैं जो कि यह जानते हैं कि 'यह राग है', 'यह द्वेष है'। अर्थात् मात्र राग-द्वेष को जानते हैं लेकिन उनमें
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