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आप्तवाणी - १४
(भाग - १)
है। अरे भाई ! फिर तू उसे शुद्ध कैसे करेगा ? जो अशुद्ध हो चुका है, वह शुद्ध कैसे हो सकेगा ?
आत्मा कभी भी अशुद्ध हुआ ही नहीं है, आत्मा एक सेकन्ड के लिए भी अशुद्ध नहीं हुआ है । और यदि हुआ होता तो कोई उसे शुद्ध कर ही नहीं सकता था इस दुनिया में क्योंकि वह स्वाभाविक वस्तु है, स्वाभाविक वस्तु को प्लास्टर - व्लास्टर (गंदगी या कचरा) कुछ भी छू नहीं सकता।
कुछ शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि 'आत्मा मूर्छित हो जाता है ' । यदि आत्मा मूर्छित हो जाए तो वह आत्मा है ही नहीं । और मूर्छित को कौन ठीक करेगा ? क्योंकि उससे बड़ा तो कोई है नहीं ।
प्रश्नकर्ता : इसमें आत्मा की प्रेरणा तो है न ?
दादाश्री : यदि प्रेरणा है तब तो आत्मा भिखारी हो गया। प्रेरणा देने वाला व्यक्ति गुनहगार है । फिर उसका छुटकारा ही नहीं हो सकेगा, प्रेरणा देने वाले का । आत्मा ने प्रेरणा - प्रेरणा नहीं दी है । वह भगवान स्वरूप है। कभी भी अशुद्धता उत्पन्न हुई ही नहीं है।
बाकी, यह सब विज्ञान से हो गया है । वह यदि प्रेरणा देता तो फिर हमेशा के लिए उसका स्वभाव बन जाता और उसकी जोखिमदारी आती, प्रेरक की जोखिमदारी है । अत: यह प्रेरक भी, खुद के कर्मों का फल ही प्रेरक है और वह व्यवस्थित शक्ति से होता है ।
इन दोनों वस्तुओं के साथ में होने से तीसरा विशेष गुण उत्पन्न हो गया है और वही कर्म ग्रहण करता रहता है । ये दोनों अपने आप खुद की स्थिति में ही रहते हैं । मूल आत्मा उसी स्थिति में रहता है, सिर्फ विभाविक पुद्गल विकारी हो जाता है। अतः यह यदि प्रेरणा होती तो यह कभी छूट ही नहीं सकता था । आत्मा संकल्प - विकल्प करता ही नहीं है। यदि संकल्प - विकल्प करे तभी उसे प्रेरणा कहते हैं । अतः वह भावकर्म करता ही नहीं है और वह कर्म को ग्रहण भी नहीं करता । यह सब 'मैं' ही करता है । यदि आत्मा भावकर्म करता तो हमेशा के लिए वह उसका स्वभाव बन जाता ।