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(१.३) विभाव अर्थात् विरुद्ध भाव?
हैं'। ऐसा मानने से तो महान दोष लगता है, भयंकर अंतराय आ जाते हैं। उसमें ऐसा गुण नहीं है।
क्या मेरा आत्मा पापी है? लोग तो ऐसा कहते हैं, 'आत्मा ऐसा विभाविक हो गया है इसलिए अब इसे सीधा करो'। अरे, सीधा करने वाला कौन है ? विभाव हो गया है ऐसा कहने वाला कौन है? कहने वाला कौन है? और मेरा आत्मा पापी है, ऐसा कहने वाला वह कौन है ? उसका पृथक्करण करो। बोलने वाला कौन है?
वह खुद, जो पापी नहीं है वही ऐसा कह सकता है न? कौन कहता है? 'मेरा आत्मा पापी है लेकिन मैं पापी नहीं हूँ', कहता है। वकील तो ऐसा ही पूछेगा न कि 'तो फिर आप?' तब कहता है, 'मेरा आत्मा पापी है, मैं नहीं'। लो, उसका अर्थ यही हुआ। ये वकील ऐसा ढूँढ निकालते हैं ! तब कहता है, 'हाँ'। अब आत्मा को पापी तक ले गए हैं लोग। उससे क्या फायदा हुआ? कुछ धर्मों में ऐसा क्यों कहते हैं ?
प्रश्नकर्ता : उन्हें अभी तक मिथ्यात्व भान है।
दादाश्री : नहीं, कोई भान ही नहीं है। मिथ्यात्व भान होता तब भी बहुत अच्छा था। तो भी पता चल जाता कि आत्मा किस तरह से पापी हो सकता है? पापी तो मैं हूँ, हम आत्मा को कैसे कह सकते हैं? जिसे मिथ्यात्व भान होगा वह ऐसा कहेगा न, 'पापी तो मैं हूँ, आत्मा क्यों?' अब वह भूल किस वजह से हो गई है ?
पहले सदगुरुओं ने कहा था, भगवान ने कहा था कि 'प्रतिष्ठित आत्मा पापी है', ऐसा कहना। तो वह 'प्रतिष्ठित' गायब हो गया और 'मूल आत्मा' पर आ गया। इसीलिए तो कृपालुदेव ने कहा है कि 'सचोडो
आत्मा ज वोसरावी दीधो' (पूरा आत्मा ही अर्पण कर दिया)। पुद्गल अर्पण करना था, उसके बजाय क्या अर्पण कर दिया? आत्मा अर्पण कर दिया। पुद्गल रहने दिया अपने पास।
अब कितने ही साधु ऐसा मान बैठे हैं कि आत्मा अशुद्ध हो गया