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आप्तवाणी-१४ (भाग-१)
नहीं है। देखो, कैसे यह जगत् चेतन के बिना चलता रहता है ! इस वर्ल्ड में पहली बार यह अनावृत कर रहा हूँ कि इसमें चेतन नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आपने हमें ज्ञान दिया उससे पहले तो हमारा आत्मा, व्यवहार आत्मा था न?
दादाश्री : हाँ। नहीं तो और क्या था? इस व्यवहार आत्मा में रहकर आपने मूल आत्मा को देखा। उसे देखा तभी से स्तंभित हो गए कि 'ओहोहो! इतना आनंद है!' इसलिए फिर उसी में रमणता चली। पहले रमणता संसार में, भौतिक में चल रही थी।
संसार अनौपचारिक, व्यवहार से... इस दुनिया में आत्मा का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन अनौपचारिक (अनुपचरित) व्यवहार का प्रमाण तो है ही न कि कोई भी उपचार किए बिना यह शरीर बना है, कोई बनाने वाला नहीं है, इसके बावजूद भी। उसके बजाय लोगों ने घुसा दिया कि भगवान हैं और भगवान ने ये सारे पुतले बनाए उनके कारखाने में'। अतः आगे सोचने के दरवाज़े ही बंद हो गए न! लेकिन हम क्या कहते हैं, भगवान ने नहीं बनाया है। और इस अनौपचारिक व्यवहार को तो देखो! यह व्यवहार उपचारिक व्यवहार नहीं है। उपचारिक व्यवहार तो हम यों वास्तव में चाय बनाते हैं, वह है। मैंने चाय बनाई' कहना वह भी भ्रांति है। यह जगत् भी अनौपचारिक व्यवहार ही है लेकिन उसे ऐसा लगता है कि 'यह मैं कर रहा हूँ, इसलिए संसार खड़ा हो गया है। फिर वह भी अनौपचारिक व्यवहार ही है। यदि इस प्रकार से अनौपचारिक व्यवहार नहीं होता तो मरता ही नहीं न कोई। वह उपचारिक व्यवहार होता तो कोई मरता ही नहीं न! वह भी अनौपचारिक व्यवहार ही है। रात को काम रहे तो वह सोएगा ही नहीं न! वह अनौपचारिक व्यवहार है! लेकिन इतने सब लोगों की बुद्धि कैसे सतर्क हो जाती है इसलिए जब हम यह सब करते हैं तो वहाँ पर 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा भान हो जाता है। और वह भान भी किस प्रकार से होता है? व्यतिरेक गुण उत्पन्न होने की वजह से।
अर्थात् आत्मा और अनात्मा की, दोनों की उपस्थिति से व्यतिरेक