________________
(१.३) विभाव अर्थात् विरुद्ध भाव?
दादाश्री : जहाँ आत्मा नहीं है, वहीं पर आत्मा मानते हैं।
प्रश्नकर्ता : हं! जहाँ पर नहीं है, वहाँ पर मानते हैं इसलिए ऐसी मुश्किल होती है।
दादाश्री : वहाँ पर बिल्कुल भी आत्मा नहीं है। 'चेतन के बिना चल रहा है', मैंने कहा न! ऐसा मानने में कैसे आएगा?
प्रश्नकर्ता : मैंने पढ़ा है कि पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) और आत्मा अवगाहन के रूप में रहे हुए हैं और इसीलिए यह विभाविक भाव उत्पन्न हो जाता है। वास्तव में आत्मा कर्ता नहीं है और पुद्गल भी कर्ता नहीं है', ऐसा कुंदकुंदाचार्य ने कहा है। वही, जो आपने सरल भाषा में कहा, तब फिर शास्त्र इस प्रकार से उसे कर्ता कैसे कह सकते हैं?
दादाश्री : इसमें किसी की बात को गलत नहीं कह रहे हैं। और फिर साफ-साफ ऐसा लिखते हैं कि 'ज्ञान दशा में खुद के स्वभाव का ही कर्ता है'। अज्ञान दशा में इसका (विभाव का) कर्ता है लेकिन बात एकांतिक रह गई। इसलिए कर्तापन छूटता नहीं है और वह साइन्टिफिक बात समझ में नहीं आती है। दूसरे धर्मों में भी ऐसा कहते हैं कि 'भगवान की इच्छा के बिना यह नहीं हो सकता'। अतः भगवान को भी अंदर लपेट लिया। तब फिर ज्ञान कैसे होगा उन्हें? विरोधाभास लाते हैं। यह तो, अपने अक्रम विज्ञान ने ये सारे भ्रम तोड़ दिए हैं।
कर्तापन से रचा संसार अब इन लोगों ने क्या कहा है कि आत्मा कर्ता है। अरे, लोगों ने तो यहाँ तक कहा है कि आत्मा भावकर्म का कर्ता है। अतः उसे भावकर्म का कर्ता ठहरा दिया। यदि वह विभाव का कर्ता होता तो वहाँ मोक्ष में भी कर्ता ही रहता। वहाँ पर क्यों नहीं रहा? अतः यह तो, जब ज्ञानी पुरुष आते हैं तब सारा खुलासा कर देते हैं।
"यह भावकर्म 'मुझे' हो रहा है", यही बंधन है। यही परभाव है। परभाव को स्वभाव मानता है, वही बंधन है। परभाव क्यों? परसत्ता