________________
सजीव अहंकार नहीं है, (इस ज्ञान के मिलने के बाद सजीव अहंकार खत्म हो जाता है) यानी कि यह बुद्धि 'देखती' है लेकिन उसे राग-द्वेष नहीं होते और वह दृष्टा के रूप में ही रहती है और 'भगवान' यानी कि मूल आत्मा, इन सब में वीतराग रहते हैं। उन्हें राग भी नहीं है और द्वेष भी नहीं है।
मूल आत्मा का ज्ञान शुद्ध है और पर्याय शुद्ध हैं जबकि विभाविक आत्मा का ज्ञान शुद्ध है और पर्याय अशुद्ध हैं।
विभाविक आत्मा के अशुद्ध पर्यायों में जो बुद्धि है, वह जीवित अहंकार से रहित है इसलिए उसे राग-द्वेष नहीं हैं लेकिन उससे निम्न स्टेज में जो (जीवित) अहंकार सहित बुद्धि है, उसे राग-द्वेष है। यदि अहंकार एकाकार नहीं होगा तो बुद्धि ऐसा देखेगी कि 'यह राग है', ऐसा देखेगी कि 'यह द्वेष है', लेकिन उसे खुद को राग-द्वेष नहीं होंगे।
इसलिए यहाँ पर बुद्धि, जो कि विभाविक पर्याय है, वह दो प्रकार की हुई।
(१) अहंकार रहित बुद्धि :- 'यह राग है, यह द्वेष है' ऐसा देखती है-जानती है लेकिन उसे राग-द्वेष नहीं होते।
(२) अहंकार सहित बुद्धि :- 'यह अच्छा है, यह बुरा है', ऐसा देखती-जानती है और राग-द्वेष होते हैं।
यदि ज्ञेयों को लेकर शुद्धता आ जाए तो पूरा ही शुद्ध हो जाएगा, पर्यायों और ज्ञेयों को लेकर। (ज्ञेयों में तन्मयता छूटे, वीतरागता से ज्ञेयों का ज्ञाता रहे तो ज्ञेयों को लेकर खुद में शुद्धता आती जाती है।)
बुद्धि कहाँ से उत्पन्न हुई? वह विभाविक आत्मा के पर्यायों से निकलती है। जब पर्यायों में भी 'आपको' शुद्ध दिखाई देने लगेगा, तब ऐसा कहा जाएगा कि मूल शुद्धात्मा बन गया।
दादाश्री खुद के पर्यायों के लिए कहते हैं कि 'हमारी जितनी कमियाँ हैं, उतने ही पर्याय बिगड़े हुए हैं। वे सभी जब शुद्ध हो जाएँगे तो ज्ञान एकदम शुद्ध हो जाएगा। उसके बाद पूर्णाहुति होगी'।
55