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खुद के स्वभाव में ही रहते हैं इसलिए बाहर का उसे 'नो टच', जबकि विभाव दशा में सौ प्रतिशत 'टच'।
केवलज्ञान सबकुछ देखता है, पुद्गल के तमाम पर्यायों को देखता है लेकिन उसे राग-द्वेष नहीं हैं, बस वीतरागता!
स्वरूप ज्ञान मिलने के बाद में शुद्धात्मा तो बन गए लेकिन पर्याय शुद्ध होने बाकी हैं। जब से 'मैं' की मान्यता अशुद्ध हुई तभी से व्यवहार
आत्मा की शुरुआत हुई। केवलज्ञान होने तक वह पर्याय स्वरूपी ही रहता है। ज्ञान, दर्शन व पर्याय स्वरूपी और तब तक कषाय रहते हैं। केवलज्ञान होते ही अकषाय दशा आ जाती है। उसके बाद वह पर्याय स्वरूपी नहीं रहता। उसके बाद तो केवलज्ञान स्वरूपी रहता है। केवलज्ञान होने तक कषाय-अकषाय वाले पर्याय रहते हैं। जितने पर्याय शुद्ध हो जाते हैं, जितनों में वीतराग हो जाता है, उतना ही उसका उपादान माना जाता है, वही पुरुषार्थ है।
सिद्धात्मा में भी द्रव्य-गुण व पर्याय होते हैं। विभाविक ज्ञान के पर्याय 'बाहर' देखते हैं जबकि ज्ञान, गुण व द्रव्य को नहीं छोड़ता। सिद्धात्मा के शुद्ध पर्याय ‘अंदर' देखते हैं, 'बाहर' नहीं देखते, खुद के द्रव्य में सबकुछ झलकता है (दिखाई देता है)।
__ आत्मा की अवस्था उसकी बाउन्ड्री में रहकर बदलती है, और तब पुद्गल उसके सामीप्य भाव में रहने के कारण उसकी नकल करता है। पुद्गल की अवस्था भी स्वाभाविक रूप से बदलती रहती है, उससे उसे ऐसी मान्यता हो जाती है कि 'मैं बदल रहा हूँ'। सामीप्य भाव से जो व्यतिरेक गुण उत्पन्न होते हैं, उनकी वजह से पुद्गल की अवस्था बदलती रहती है।
__ जड़ के दबाव से चेतन विभाव दशा में आता है, वहीं पर 'मैं' खड़ा हो जाता है, उसी को भ्रांत भाव का अहंकार कहा गया है। फिर आगे बढ़कर 'मैं' को 'मैं चंदू हूँ', ऐसी मान्यता हो जाती है, उसे पौद्गलिक भाव का अहंकार कहा गया है।
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