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विभाविक पर्यायों को शुद्ध करते-करते केवलज्ञान तक पहुँचने की मंज़िल के बारे में समझाया गया है। अध्ययन करते-करते जैसे-जैसे स्पष्टता होती जाएगी, वैसे-वैसे स्वाभाविक रूप से अहो! अहो! होता जाएगा और सहज रूप से ही आवरण हटते जाएँगे। अक्रम विज्ञानी परम पूज्य दादाश्री के समक्ष हर पल कोटि-कोटि सलाम करते हुए हृदय व मस्तक झुक जाते हैं। धन्य है इन ज्ञानी को और धन्य है, इस केवलज्ञान तक को स्पष्ट रूप से समझाने वाली वाणी को!
प्रस्तुत ग्रंथ में जहाँ-जहाँ आत्मा के पर्यायों की अशुद्धि का उल्लेख आता है, वहाँ-वहाँ पर विभाव दशा के अशुद्ध पर्यायों के बारे में बात है, पुरुषार्थी (पाठक) को ऐसा समझना है।
(१) परिभाषा द्रव्य-गुण व पर्याय की द्रव्य अर्थात् अविनाशी शाश्वत द्रव्य, यानी कि तत्त्व। द्रव्य हमेशा ही खुद के स्वतंत्र द्रव्य-गुण व पर्याय सहित होता है। द्रव्य में वस्तु अर्थात् वस्तु का स्वभाव और उसके गुण, ये दोनों आते हैं। बाकी सब पर्याय में जाता है।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में बिल्कुल भी दखलंदाजी नहीं कर सकता। एक मूल द्रव्य को दूसरे मूल द्रव्य से कोई भी लेना-देना नहीं है। उनके द्रव्य-गुण-पर्याय अलग-अलग हैं और दूसरे द्रव्यों के साथ अन्यत्व (भिन्नता) है, अर्थात् नो कनेक्शन।
सूर्यनारायण को द्रव्य यानी कि वस्तु कहा जाएगा। प्रकाश उनका गुण कहलाता है और जो किरणे बाहर आती हैं, वे पर्याय कहलाती हैं। द्रव्य-गुण अविनाशी हैं, पर्याय विनाशी हैं। पर्याय उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और उनका नाश हो जाता है। 'टिकना' और 'ध्रुव', दोनों में बहुत फर्क है। जो हमेशा रहे उसे 'ध्रुव' कहा जाता है लेकिन जब 'टिकता' है, तब भी उसमें हर पल परिवर्तन तो होता ही रहता है, जो अति-अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता लेकिन सूक्ष्म रूप से नाश होने का प्रोसेस (प्रक्रिया) तो चलता ही रहता है। जैसे लकड़ी कट रही हो
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