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और अंत में दो टकडे हो जाते हैं लेकिन बीच में जब वह कट रहा था तब क्या हर पल वह अलग नहीं हो रहा था? कालवर्ती को 'टिकता है' कहते हैं और त्रिकालवर्ती वस्तु को ध्रुव कहा जाता है। अनंत काल से अनंत पर्यायों के बदलते रहने के बावजूद भी उत्पन्न-विनाश होता है, फिर भी मूल आत्मा तो सदा ध्रुव ही है। उसमें कोई भी बदलाव नहीं आता।
मूल द्रव्य के गुण भी अविनाशी हैं, शाश्वत हैं। उन्हें अन्वय गण कहते हैं, जो सिद्ध क्षेत्र में भी वैसे ही रहते हैं। दो द्रव्यों के मिलने के बाद जो विभाविक गुण उत्पन्न होते हैं, जिन्हें व्यतिरेक गुण कहा जाता है, जो कि क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, वे विनाशी हैं, टेम्परेरी हैं।
पर्याय बहुत सूक्ष्म होते हैं, जो दिखाई देती हैं, वे सभी अवस्थाएँ हैं। जब वह स्थूल रूप में आ जाए, तब जाकर अवस्था कहलाती है। उदाहरण के तौर पर घंटे को अवस्था कहते हैं और पल, पर्याय कहलाता है। हालांकि पर्याय में पल जितनी स्थूलता नहीं है। जो इन्द्रियगम्य हैं, वे सभी अवस्थाएँ हैं और जो अतिन्द्रियगम्य हैं, वे पर्याय हैं। ज्ञानी पुरुष या केवलज्ञानी के अलावा कोई भी पर्यायों को नहीं देख सकता।
ज्ञान आत्मा का गुण है और वह भी सिर्फ केवलज्ञान ही, दूसरा शुभ-अशुभ का ज्ञान नहीं। शुद्ध प्रकाश, वही आत्मा है, वही ज्ञान है! जब केवलज्ञान रूपी ज्ञान होता है, तब वह द्रव्य रूपी (ज्ञान) कहलाता है और जब तक केवल (ज्ञान) नहीं हो जाता, तब तक ज्ञानरूपी कहलाता है। द्रव्य ऐसी चीज़ है जो कि शुद्ध ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति वगैरह गुणों से भरपूर है। उसमें इसका जो विशेष स्वभाव है, वह ज्ञायक स्वभाव है। ज्ञायक स्वभाव अर्थात् मात्र जानने का स्वभाव। ज्ञान और आत्मा द्रव्य के रूप में अविनाभाव संबंध वाले हैं। जब तक ज्ञान संपूर्ण शुद्ध नहीं हो जाता, तब तक वह ज्ञान, गुण के रूप में रहता है। ज्ञान अलग है और संपूर्ण केवलज्ञान होने पर द्रव्य और ज्ञान एक ही हो जाते हैं।
आत्मा के गुण और पुद्गल के गुण बिल्कुल अलग ही हैं और अनंत हैं। संख्या की दृष्टि से भी एक सरीखे नहीं हैं।
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