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क्या अहंकार ही यह कहता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ? नहीं, अहंकार नहीं कहता लेकिन 'मैं', 'मैं' ऐसा कहता है । अहंकार जुदा रहता है, उसे इससे कोई लेना-देना नहीं रहता । यहाँ पर अहम्, जो कि अहंकार से पहले वाली स्टेज है, उसके बारे में बात हो रही है। अब 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह सिर्फ शब्द के रूप में नहीं है लेकिन उस तरफ के रुख वाली क्रिया है। जैसे-जैसे श्रद्धा और बिलीफ बदलते हैं, वैसे-वैसे आवरण टूटते जाते हैं। उसके बाद जो अहंकार बचता है, वह डिस्चार्ज अहंकार है। भटका हुआ अहंकार चार्ज, सजीव अहंकार है । उल्टे में से वापस मुड़ने के लिए जिस अहंकार की ज़रूरत है, वह निर्जीव अहंकार है । उसके बिना वापस कैसे मुड़ सकते हैं ?
ज्ञान मिलने के बाद अहंकार शुद्ध हो जाता है (रोंग बिलीफ फ्रेक्चर होने से) लेकिन क्रोध - मान-माया - लोभ के परमाणु खाली करने बाकी रहते हैं। वे जब संपूर्ण रूप से खाली हो जाएँगे तो वह अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाएगा। फिर वह आत्मा के स्वभाव में एक हो जाएगा। ('मैं' शुद्ध होकर शुद्धात्मा में एक हो जाएगा ) ! तब तक जुदा रहता है ।
'मैं' में यदि ज़रा से भी दूसरे परमाणु होंगे तो वह बाहर बैठेगा । सभी परमाणुओं का गलन होने के बाद में जब 'मैं' शुद्धात्मा में चला जाता है उसी को मोक्ष कहते हैं, उसी को चरम शरीरी कहते हैं । क्रमिक मार्ग में यह अंत में शुद्ध होता है ।
प्रकृति के डिस्चार्ज होने में 'मैं' की ज़रूरत मात्र डिस्चार्ज स्वरूप से रहती है। उसकी सहमति की ज़रूरत नहीं है, उपस्थिति ही काफी है। कर्ताभाव से जो नाटक किया था, उसे भोक्ताभाव से करना पड़ेगा, तभी साफ होगा। भोक्ताभाव को डिस्चार्ज अहंकार कहा गया है।
यदि अहंकार को पहचान जाए तो वह भगवान बना देगा। 'मैं' कहने वाले को अच्छी तरह से पहचानना है अर्थात् पूरे पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) को पहचानना है, तो फिर भगवान ही बन जाएगा ।
अहंकार शुद्ध की भजना ( उस रूप होना, भक्ति) करते-करते,
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