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माना कि पावर भर जाता है। वह चलता ही रहता है... मात्र मान्यता से ही कर्तापन आ गया है। _ 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इसे जानने वाला कौन है?
'मैं' ही उसे जानता है। 'मैं चंदूभाई हूँ' उस 'मैं' का ज्ञान बदला और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' हो गया इसलिए वह 'मैं', जिसे अहंकार कहा गया है, वह जानता है और वह अहंकार बुद्धि सहित ही है, उसे जानने में बुद्धि अकेली नहीं है।
ज्ञान के बाद में जो बचता है, वह डिस्चार्ज अहंकार है, चार्ज वाला बंद हो जाता है। जब ज्ञान मिलता है, तब अहंकार बुद्धि सहित खुद ही समझ जाता है कि मेरा अस्तित्व ही गलत है और शुद्धात्मा ही मूल स्वभाव है इसलिए उसे सबकुछ सौंप देता है। ज्ञान में अहंकार स्तब्ध हो जाता है कि इसमें मैं कहाँ पर हूँ? मेरा मालिकीपन या मेरा स्कोप कहाँ है ? तभी वह आत्मा की और खुद की भेदरेखा को समझ जाता है और गद्दी मूल पुरुष (आत्मा) को सौंप देता है।
इस प्रकार से समझकर ऐसा कहा जा सकता है कि अहंकार आत्मा को जानता है ! बाहर यह बात उल्टी तरह से समझ ली जाती है कि अहंकार किस तरह आत्मा को जान सकता है? लेकिन ज्ञान के समय ही यह प्रक्रिया होती है। यानी कि पहले ज्ञान नहीं हो जाता लेकिन पहले अहंकार जाता है और वह भी ज्ञानविधि के समय विराट स्वरूप के प्रताप से!!!
ज्ञान मिलने के बाद, जो पहले मिथ्या दृष्टि वाला था, वह 'खुद' सम्यक् दृष्टि वाला बन जाता है। दोनों दृष्टियाँ 'मैं' की ही अर्थात् अहंकार की ही हैं। जो दृष्टि पहले दृश्य को देखती थी, ज्ञान के बाद वह दृष्टा को देखती है। मूल आत्मा में दृष्टि नहीं होती। आत्मा में तो सहज स्वभाव से ज्ञेय झलकते हैं, उसके ज्ञान में ही! आत्मज्ञान को जानने वाला अहंकार है, जिसकी दृष्टि आत्मा में पड़ती है और वहीं पर वह शुद्ध हो जाता है
और शुद्धात्मा में विलीन हो जाता है। जैसे शक्कर की पुतली पानी में गिरते ही विलीन हो जाती है, उस तरह से!
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