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(विभाविक) दर्शन में ही है। जब 'मैं' पद आ जाए तो वह मान है, तब वह (विभाविक) ज्ञान में आता है।
___'मैं ऊपर से नीचे आया' उसमें 'मैं' तो आता ही नहीं है, शरीर नीचे आता है। फिर भी कहता है, 'मैं नीचे आया', उस मान्यता को अहंकार कहा गया है और उससे भी आगे बढ़कर वह कहता है कि 'मैं आया', उसे मान कहते हैं, बिलीफ में से ज्ञान में आया, ऐसा कहा जाता
पोतापन और अहम्पन में क्या फर्क है?
'अहम्' मात्र मान्यता में ही है यानी कि (मिथ्या) दर्शन में ही है जबकि पोतापन वर्तन में आ जाता है यानी कि (मिथ्या) ज्ञान से भी आगे (मिथ्या) चारित्र में आ गया, ऐसा कहा जाएगा। स्वरूप ज्ञान मिलने के बाद में मान्यता में से 'मैं' पन चला जाता है लेकिन वर्तन में पोतापन रहता है इसीलिए तो अपने 'महात्माओं' में ज़बरदस्त पोतापन है। जो भोला होता है, उसमें कम होता है।
'मैं' एवरीव्हेर एडजस्टेबल है। 'मैं' में से 'मैं' चंदू बनता है, आगे जाकर किसी का जमाई बनता है, भानजा बनता है, डॉक्टर बनता है और ज्ञान मिलते ही दो घंटों में, 'मैं' शुद्धात्मा बन जाता है ! 'मैं' में एक भी स्पेयर पार्ट नहीं है। वह अनंत जन्मों से कभी भी बदला ही नहीं है। जबकि पोतापन, पोतापन के अलावा और कहीं भी एडजस्ट नहीं हो सकता। इस प्रकार 'मैं' और पोतापन बिल्कुल अलग ही चीजें हैं।
__ 'मैं', वह पोतापन नहीं है लेकिन खुद ऐसा सब जो मान लेता है, वही पोतापन है।
___ 'मैं' क्या है, उस 'वस्तु' को नहीं समझने से, 'मैं' ने दूसरी चीज़ों का आरोपण किया, उससे विकल्प उत्पन्न हो गए। विकल्पों के उस पूरे गोले को पोतापन कहा गया है। उसमें विकल्प जितने कम किए जाएँ, उतने ही कम हो सकते हैं और जितने बढ़ाए जाएँ, उतने बढ़ेंगे।
'मैं' में से विकल्प होता है, लेकिन 'मैं' तो साफ (शुद्ध) ही
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