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अव्यवहार राशि के कर्म व्यवहार राशि में भुगतता है और इन सब से पहले अहम् तो खड़ा हो ही चुका होता है। विशेष भाव उत्पन्न हुआ तभी से!
आत्मा का जन्म नहीं होता है। अहंकार का जन्म-मरण होता है। आत्मा पर आवरण चढ़ते-उतरते रहते हैं।
'आप' जब तक 'मैं' में बरतोगे, तब तक स्वरूप का भान नहीं होगा और तब तक 'मैं' अलग ही रहेगा। 'मैं' व्यतिरेक गुण है।
यह जो आत्मा का विभाव है, वह अहंकार है।
हर एक में चेतन एक सरीखा ही है लेकिन जड़ कभी भी एक सरीखा नहीं हो सकता।
विशेष परिणाम का मूल कारण है, दो द्रव्यों का पास-पास आना।
पास-पास आने से खुद का मानते हैं। उस रोंग बिलीफ से क्रोधमान-माया-लोभ उत्पन्न हो जाते हैं। फिर आगे जाकर पूरा अंतःकरण बन जाता है। मन तो अहंकार ने बनाया है। वे उनके वारिस हैं! पिछले जन्म में अहंकार ने मन क्रिएट किया था, उसमें से आज के विचार आते
हैं।
जड़ व चेतन एक साथ थे, जो कॉज़ेज़ पैदा कर रहे थे, ज्ञानी उन्हें अलग कर देते हैं। इसलिए अब उनमें क्रोध-मान-माया-लोभ उत्पन्न ही नहीं होते। इसीलिए कॉज़ बंद हो जाते हैं। इसीलिए तो वे ज्ञानी कहलाते हैं। जिनमें ये एक साथ रहते हैं, इकट्ठे रहते हैं, वे अज्ञानी हैं। ज्ञानी के लिए मन ज्ञेय होता है इसलिए नए परिणाम उत्पन्न नहीं होते। पिछले परिणामों को 'देखते' ही रहते हैं। पहले मन में विचर रहे थे, इसलिए विचार उत्पन्न होते थे। यदि सिर्फ 'देखें' तो नहीं होंगे।
अहंकार को दु:ख होता है, इसलिए उसे इसमें से मुक्त होना है। मैं पन और मेरापन उत्पन्न हुआ, उसे निभाता कौन है ? आत्मा की उपस्थिति।
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