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दादाश्री खुद की ज्ञानवाणी के लिए क्या कहते हैं कि अत्यंत स्पष्ट होने के बावजूद भी वह व्यतिरेक गुणों में से उत्पन्न हुई है। वह रिलेटिव नहीं है लेकिन रियल-रिलेटिव है।
रियल-रिलेटिव, रिलेटिव और तीसरा है रिलेटिव-रिलेटिव ।
ज्ञानी को सभी जगह ऐसा ही रहता है कि 'मैं ही हूँ', फिर क्या कहीं भी भेद रहेगा?
दादाश्री के एवर फ्रेश रहने का कारण क्या है?
परभाव का क्षय और निरंतर स्वभाव की जागृति रहती है। परभाव के प्रति जिन्हें किंचित्मात्र भी रुचि नहीं है, एक परमाणु तक में भी रुचि नहीं है, वहाँ पर परमात्मा प्रकट नहीं हुए होंगे तो और क्या होगा?
महात्माओं को भी परभाव के क्षय की तरफ ही दृष्टि रखनी चाहिए।
परभाव के संपूर्ण रूप से चले जाने के बाद स्वक्षेत्र में हिसाब के अनुसार रहकर सिद्ध क्षेत्र में जाता है। स्वक्षेत्र, वह सिद्ध क्षेत्र का दरवाजा है।
सिद्ध क्षेत्र में जाने से पहले सभी परमाणु खत्म हो जाते हैं। उसके बाद धर्मास्तिकाय उसे वहाँ पर रख आता है। वहाँ पर कोई भी संयोग नहीं है, इसलिए विभाव उत्पन्न ही नहीं होता।
(१२) 'मैं' के सामने जागृति मूल रूप से अज्ञान तो था ही, जो सूक्ष्म रूप से रहता है और बाहर के संयोग मिलते ही स्थूल में दिखाई देता है।
'मैं आत्मा हूँ' इसमें 'मैं' कौन है और आत्मा कौन? 'मैं', अहंकार है और आत्मा, मूल द्रव्य है।
आइ + माइ = अहंकार, आइ - माइ = आत्मा। जब 'माइ' का एक भी परमाणु न रहे तो वह जो 'आइ' है, वह आत्मा कहलाता है।
अहंकार कभी भी स्वाभाविक नहीं होता, विभाविक ही होता है।
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