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शुद्ध स्वरूप को देख-देखकर खुद उसी रूप होते जाते हो। आत्मा के गुणों की भजना (उस रूप होना, भक्ति) करते-करते खुद उसी रूप हो जाता है। _ 'मैं चंदूभाई हूँ', वही विभाव है और वही भावकर्म है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा रहा तो स्वभाव है।
क्रोध होता है और उसके परमाणुओं में आत्मा तन्मयाकार हो ही जाता है इसलिए वह क्रोध कहलाता है। तन्मयाकार होने से विशेष परिणाम उत्पन्न होते हैं। फिर उसे पर-परिणाम कहते हैं। सुख-दुःख भुगतना वगैरह पूरा ही संसार पर-परिणाम है।
विशेष परिणाम शुद्ध को नहीं जान सकता, ज्ञानी को पहचान सकता है।
क्या प्रज्ञा शुद्धात्मा का विशेष परिणाम हो सकती है? नहीं। प्रज्ञा तो शुद्धात्मा जागृत होने के बाद में उसकी जो डाइरेक्ट शक्ति उत्पन्न हुई है, वह है। अज्ञा, वह विशेष परिणाम है और प्रज्ञा, वह आत्मा का परिणाम है।
मात्र दृष्टि बदलने से ही करोड़ों वर्षों का विभाव दूर हो जाता है। 'मैंने किया', इस प्रकार की दृष्टि करते ही सभी कषाय जकड़ लेते हैं।
विशेष परिणाम उत्पन्न हो तो उसे ऐसा समझना कि 'यह मेरा नहीं है', इसलिए फिर निकाल हो जाएगा।
(११) जब विशेष परिणाम का अंत आता है तब...
दूध का बिगड़ना तो उसका स्वभाव है और दहीं बनना, वह है विभाव।
वस्तु अविनाशी है, उसके परिणाम भी अविनाशी हैं, मात्र उसके विशेष परिणाम विनाशी हैं। यथार्थ रूप से इतना ही समझो।
दादाश्री कहते हैं, 'हम में' तो 'आत्मा' आत्मपरिणाम में ही रहता
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