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है । 'मन' मन के परिणाम में रहता है । मन में तन्मयाकार होने से विशेष परिणाम आते हैं। आत्मा का स्व-परिणाम में आना, वही परमात्मा है ! दोनों अपने-अपने परिणाम में आ जाएँ और दोनों अपने-अपने परिणाम को भजें, उसी को कहते हैं मोक्ष !
विशेष परिणाम को जानना ही स्व-परिणाम है । वहाँ पर विशेष परिणाम का अंत आता है।
जो विशेष भाव में परिणामित होता है, वह है जीव और यदि उसे 'देखे और जाने' तो परमानंद ।
विशेष परिणाम से उत्पन्न हुआ 'मिकेनिकल चेतन'। पूरण-गलन वाला पुद्गल, उसे खुद का माना तो बंध गया !
विशेष परिणाम की वजह से जो संयोग उत्पन्न होते हैं, प्रतिक्रमण करने से वे धुल जाते हैं। वर्ना दरअसल साइन्टिस्ट को प्रतिक्रमण क्यों करने? महात्मा इसमें भूल कर बैठते हैं, इसलिए प्रतिक्रमण करने चाहिए।
विशेष परिणाम में अच्छा-बुरा नहीं होता । वह तो, पक्षधर बनने से ऐसा होता है। आत्मभाव के अलावा बाकी का सबकुछ विशेष परिणाम है।
'देखना व जानना' स्व - परिणाम है लेकिन बुद्धि से देखना व जानना, वह है विशेष परिणाम ।
पहले यह समझ में आए कि अहम् गलत है, ऐसी प्रतीति हो जाए, उसके बाद वह टूटने लगता है और वैसे-वैसे विशेष भाव विलय होता जाता है। अहम् भाव के खत्म होते ही विशेष भाव भी खत्म !
विभाव क्रमपूर्वक कम होता है और स्वभाव क्रमपूर्वक बढ़ता
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प्रज्ञा, वह विभाव नहीं है । विशेष भाव कितना कम हुआ, स्वभाव कितना बढ़ा, जो उसे जानता है, वह प्रज्ञा है । प्रज्ञा भी गुरु - लघु होती रहती है। प्रज्ञा केवलज्ञान होने तक ही रहती है और विभाव भी तभी तक रहता है।
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