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स्वरूप ज्ञान प्राप्ति के बाद में क्रोध-मान-माया-लोभ पुद्गल के गुण माने जाते हैं। अज्ञान दशा में वे आत्मा के गुण माने जाते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। अहंकार सिर्फ उसे अपने ऊपर ले लेता है। ज्ञान के बाद आज्ञा में रहने से कषाय स्पर्श नहीं करते।
जो अनंत सुखधाम है, क्या ऐसे आत्मा को चिंता हो सकती है? यह तो भ्रांत मान्यता है कि आत्मा चिंता करता है। ऐसा कौन मानता है ? अहंकार। जो अलग रहता है, दूसरे को गुनहगार सिद्ध करके।
(९) स्वभाव - विभाव के स्वरूप हर एक द्रव्य सत् है, अविनाशी है, परिवर्तनशील है और सदा खुद के स्वभाव में ही स्थिर रहता है।
जगत् के तमाम संयोग स्वभाव से ही चल रहे हैं।
विभाव उत्पन्न होने के बाद भी स्वभाव स्वभाव में ही रहता है और विभाव के खुद के नए ही गुण उत्पन्न होते हैं।
स्वभाव से यह दुनिया चल रही है और विभाव से टकराव होते हैं। स्वभाव मोक्ष में ले जाता है, विभाव संसार में भटकाता है।
मेहनत करना विभाव है और अकर्तापन स्वभाव है। स्वभाव में जाने के लिए मेहनत नहीं है, लेकिन विभाव में जाने में है।
रियल धर्म स्वाभाविक धर्म है। व्यवहार धर्म विभाविक धर्म है। जिसमें तप, त्याग, ग्रहण करना होता है।
वस्तु स्वभाव में आ जाए, उसे मोक्ष कहते हैं।
स्वभाव ही आत्मा की मूल सत्ता है, विशेष परिणाम नहीं। विशेष परिणाम, वह विभाविक सत्ता है, संयोगी सत्ता है, मूल नहीं है।
आत्मा खुद के स्व-स्वभाव कर्मों का कर्ता है, अन्य किसी का नहीं। जैसे प्रकाश स्वाभाविक रूप से सभी को प्रकाशित करता है, वैसा ही आत्मा का है। भ्रांति से उसे संसार का कर्ता कहा गया है।
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